Monday, March 29, 2010
सुरेन्द्र चतुर्वेदी-ग़ज़लें और परिचय
1955 मे अजमेर(राजस्थान) में जन्मे सुरेन्द्र चतुर्वेदी के अब तक सात ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और वो आजकल मुंबई फिल्मों मे पटकथा लेखन से जुड़े हैं.इसके अलावा भी इनकी छ: और पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
किसी शायर की तबीयत जब फ़क़ीरों जैसी हो जाती है तो वो किसी दैवी शक्ति के प्रभाव में ऐसे अशआर कह जाता है जिस पर ख़ुद शायर को भी ताज्ज़ुब होता है कि ये उसने कहे हैं। फ़कीराना तबीयत के मालिक सुरेन्द्र चतुर्वेदी के शे’र भी ऐसे ही हैं-
रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन
जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं....सुरेन्द्र चतुर्वेदी
एक सूफ़ी की ग़ज़ल का शे’र हूँ मैं दोस्तो
बेखुदी के रास्ते दिल मे उतर जाता हूँ मैं....सुरेन्द्र चतुर्वेदी
इनकी ग़ज़लें पहले भी शाया की थीं जिन्हें आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं-
http://aajkeeghazal.blogspot.com/2009/06/blog-post_26.html
जब बात सूफ़ियों की चली तो कुछ अशआर ज़हन में आ रहे हैं-
ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता
फ़स्ले बहार आई पियो सूफ़ियों शराब
बस हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइए ....आतिश
आज एक और शायर का ज़िक्र करना चाहूँगा जनाब मुज़फ़्फ़र रिज़मी। इनका एक शे’र जो बेमिसाल है और ऐसी ही किसी फ़कीराना तबीयत में कहा गया होगा-
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाक़ी
अगली नस्लों को दुआ दे के चला जाऊंगा....मुज़फ़्फ़र रिज़मी
और जनाब दिलावर फ़िगार ने शायर की मुशकिल को कुछ इस तरह बयान किया है -
दिले-शायर पे कुछ ऐसी ही गुज़रती है 'फ़िगार'
जो किसी क़तरे पे गुज़रे है गुहर होने तक
और अब ऐसे ही गुहर जनाब सुरेन्द्र चतुर्वेदी जिनके बारे में गुलज़ार साहब ने कहा -
मुझे हमेशा यही लगा कि मेरी शक़्ल का कोई शख़्स सुरेन्द्र में भी रहता है जो हर लम्हा उसे उंगली पकड़कर लिखने पे मज़बूर करता है...गुलज़ार
मुलाहिज़ा कीजिए इनकी तीन ग़ज़लें-
ग़ज़ल
कड़ी इस धूप में मुझको कोई पीपल बना दे
मुझे इक बार पुरखों की दुआ का फल बना दे
नहीं बरसा है मेरे गाँव में बरसों से पानी
मेरे मौला मुझे इस बार तू बादल बना दे
किसी दरगाह की आने लगी खुशबू बदन में
कहीं ऐसा न हो मुझको वफ़ा संदल बना दे
अदब , तहज़ीब अपनी ये शहर तो खो चुका है
तू ऐसा कर कि जादू से इसे जंगल बना दे
जतन से बुन रहा हूँ आज मैं बीते दिनों को
न जाने कौन सा पल याद को मखमल बना दे
बग़ाबत पर उतर आए हैं अब हालात मेरे
कोई आकर मेरे हालात को चंबल बना दे
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 1222 122
ग़ज़ल
ग़र मैं बाज़ार तक पहुँच जाता
अपने हक़दार तक पहुँच जाता
दिन फ़क़ीरी के जो बिता लेता
उसके दरबार तक पहुँच जाता
झांक लेता जो खु़द में इक लम्हा
वो गुनहगार तक पहुँच जाता
रूह में फ़ासला रखा वर्ना
जिस्म दीवार तक पहुँच जाता
मुझमें कुछ दिन अगर वो रह लेता
मेरे क़िरदार तक पहुँच जाता
आयतें उसने ग़र पढ़ी होतीं
वो मेरे प्यार तक पहुँच जाता
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
ग़ज़ल
एक लंबी उड़ान हूँ जैसे
या कोई आसमान हूँ जैसे
हर कोई कब मुझे समझता है
सूफ़ियों की ज़बान हूँ जैसे
मैं अमीरों के इक मोहल्ले में
कोई कच्चा मकान हूँ जैसे
मुझसे रहते हैं दूर-दूर सभी
उम्र भर की थकान हूँ जैसे
बारिशें तेज़ हों तो लगता है
आग के दरमियान हूँ जैसे
लोग हँस-हँस के मुझको पढ़ते हैं
दर्द की दास्तान हूँ जैसे
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
बात सूफ़ियों की हो और बाबा बुल्ले शाह का नाम न आए। सुनिए अबीदा परवीन की सूफ़ी आवाज़ में साईं बुल्ले शाह का क़लाम
धन्यवाद
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11 comments:
चतुर्वेदी साहब ने दुरुस्त फ़रमाया है कि:
हर कोई कब मुझे समझता है,
सूफियों की जुबान हूँ जैसे
बेशक सूफी महसूस करने के लिए दिल से सूफी होना बेहद ज़रूरी है! इनके लिए गुलज़ार साहब का कथन भी यही दर्शाता है!
अदब तहजीब अपनी ये शहर तो खो चुका है,
तू ऐसा कर कि जादू से इसे जंगल बना दे
दिन फकीरी के जो बिता लेता,
उसके दरबार तक पहुँच जाता
आज सूफी के इतने कदवार शायर कम ही दिखते हैं! ऐसे अशआर पढ़ कर तबियत रूहानी हो गयी!
एक दफे कहा था:
कहीं हो गूंज शंख नादों की,
कहीं नमाज़ का मंज़र तुम हो
जो खो गया तो पा लिया तुमको,
मेरे अंदर मेरे बाहर तुम हो
bahut achi kavita he bhai saheb
ढेर सारी शुभकामनायें.
http://kavyawani.blogspot.com
shekhar kumawat
एक अच्छे शायर का परिचय देने के लिये आभार।
कड़ी इस धूप में मुझको ..... और नहीं बरसा है मेरे गाँव में ..., किसी दरगाह की ... तथा झांक लेता जो खु़द में इक लम्हा
वो गुनहगार तक पहुँच जाता
बहुत अच्छे लगे।
बेहतरीन ,पढ़वाने के लिए शुक्रिया ,
हर दिल की यही आवाज़ है
अगर्चे सो गयी है
गहरे ख्याल हैं, सुकून से पढ़ना पड़ेगा ।
सतपाल जी आदाब,
जनाब सुरेन्द्र जी तो जैसे नगीना अंगूठी ( ग़ज़ल ) हैं, क्या खूब बातें की है इन्होने अपनी उम्दा तरीन ग़ज़लों के मार्फ़त .... जवाब नहीं ... हर शे'र पर दिल वाह वाह कह रहा है ...
बधाई
अर्श
पहली ग़ज़ल तो दिल के भीतर उतर गई।
भाई सुरेंद्र चतुर्वेदी के यहां बाहर की कायनात और भीतर की दुनिया दोनों अपने पुरअसर अंदाज़ में मौजूद हैं। बेहद ख़ुशी है कि उन्होंने मुझे अपनी नई किताब भेजी जिसका नाम है- कोई कच्चा मकान हूँ जैसे। इसी किताब से एक शेर आप सबकी नज़र कर रहा हूँ-
जहाँ हो अम्न से सब कुछ वो मंज़र दूर कितना है
बता मेरी हथेली से मुकद्दर दूर कितना है
देवमणि पाण्डेय (मुम्बई)
Bhai Surendra Chaturvedi ki ghazalen padhkar tabiyat khus ho gai teenon hi ghazalen lazabab Apko tatha Surendra bhai ko badhaiPahali ghazal ka matala to kamal ka hai
Kadi is dhoop men........
रंजन गोरखपुरी जी ने सही कहा है ...
आज सूफी के इतने कदवार शायर कम ही दिखते हैं! ऐसे अशआर पढ़ कर तबियत रूहानी हो गयी!
एह्सासातों को अल्फाजों का बेहतरीन पैरहन दिया है हज़रत ने........हज़ारों हज़ार मुबारक बेहतरीन लेखन के लिए
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