इस क़िस्त कि शुरूआत इस ग़ज़ल से कर रहे हैं ,जिसमें जगजीत सिंह ने जोगी शब्द को अलग-अलग अंदाज़ में पेश किया है। ठीक वैसे ही जैसे शायरों ने इस मुशायरे में जोगी को नचाया।
नये-पुराने शायरों को हमने एक साथ शाया किया है ताकि प्रयास, अनुभव से सीख सके और अनुभव, नये का मार्गदर्शन और स्वागत कर सके। इस तरही मुशायरे की अंतिम क़िस्त 27 तारीख को शाया होगी , जिसमें आदरणीय द्विज जी की और मुझ नाचीज़ की ग़ज़ल शाया की जाएगी। आप सब समापन सामारोह पर सादर आमंत्रित हैं। हर शायर जो यहाँ पेश हुआ है उससे अपेक्षा है कि वो समापन पर ज़रूर पधारे । लीजिए आठवीं क़िस्त आप सब की नज़्र कर रहा हूँ-
विनोद कुमार पांडेय
बैठ मेरे तू पास रे जोगी
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी
सच्चाई है, इसको जानो
हर दिल रब का वास रे जोगी
रंग बदलते इंसानों का
कौन करे विश्वास रे जोगी
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
देख तमाशा इस दुनिया का
मत हो ऐसे उदास रे जोगी
फैंकों अपनी झोला-झंडी
हो जाओ बिंदास रे जोगी
कुमार ज़ाहिद
मत रख तू उपवास रे जोगी
झूठी है हर आस रे जोगी
गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
चाहे जिसकी चाह छुपी हो
है मिथ्या संन्यास रे जोगी
मनका- मनका, इनका- उनका
मन का मिटा न त्रास रे जोगी
चल ‘ज़ाहिद’ से मिलकर पूछें
मिटती कैसे प्यास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह
किसको है संत्रास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
रब के दरस को मारा फिरता
कैसी है यह प्यास रे जोगी
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
लाख जतन कर के मैं हारा
कैसे बुझे यह प्यास रे जोगी
जीवन में जब तूफां आया
डोल चला विश्वास रे जोगी
हर पल प्रभु लीला मैं गाता
कब आयें प्रभु पास रे जोगी
गौतम सचदेव
यह कैसा संन्यास रे जोगी
निशि-दिन, भोग-विलास रे जोगी
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी
हत्यारा मानव, मानव का
यह ही है इतिहास रे जोगी
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी
पाखंडों की चादर ओढ़े
धर्म हुए बकवास रे जोगी
चैन सिंह शेखावत
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
अंधियारों से वह जूझेगा
जिसके ह्रदय उजास रे जोगी
शोर उठेगा दूर- दूर तक
जब टूटे विश्वास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
कुछ न बचा बस मेरे हिस्से
गिनती के कुछ श्वास रे जोगी
4 comments:
खाकसार की नजर में यह मुशायरा काफी कामयाब रहा है। अंतिम किस्त का इंतजार तो सबसे अधिक रहेगा लेकिन इससे पहले की सभी किस्तों में अच्छी ग़ज़लें आई हैं। प्रस्तुत किस्त में विनोद कुमार पांडेय
साहब का :
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
अच्छे लगे।
कुमार ज़ाहिद साहब ने भी अच्छे शेर कहे हैं और यह तो अलग ही लगा: गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह जी का :
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
अच्छा है।
गौतम सचदेव जी, मुझे अफसोस हो रहा है कि मैं कारावास काफिए का इस्तेमाल क्यसों नहीं कर सका। बहुत अच्छा :
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी वाह-वाह ये शेर तो बहुत ही सामयिक और संजीदा है।
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी बधाई।
चैन सिंह शेखावत साहब भी अच्छा लिखते हैं :
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
सतपाल जी को बधाई। सभी शो'रा हज़रात को बधाई
naye shayar vinod samet sari ghazale bhi shreshthata ki paramparaa ko hi aage barhane vali hai. dhanyvaad...''aaj ki ghazal'' ko.
विनोद कुमार पांडेय जी का 'अपनों ने ही गर्दन काटी देख ज़रा इतिहास रे जोगी', कुमार ज़ाहिद का ' चाहे जिसकी चाह छुपी हो है मिथ्या संन्यास रे जोगी' कवि कुलवंत सिंह का 'रब के दरस को मारा फिरता कैसी है यह प्यास रे जोगी' तथा गौतम सचदेव जी और चैन सिंह शेखावत जी की ग़ज़लें छा गयीं।
विनोद कुमार पांडेय जी
कुमार ज़ाहिद जी
कवि कुलवंत सिंह जी
गौतम सचदेव जी
चैन सिंह शेखावत जी
सभी ने इस तरही में अच्छे शे'र कहे हैं.
इस प्रस्तुति के लिए शुक्रिया!!
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