Tuesday, June 15, 2010

सदा अम्बालवी की ग़ज़लें

राजेन्द्र पाल सिंह उर्फ़ सदा अम्बालवी की तीन ग़ज़लें आज शाया कर रहे हैं। आप पंजाब एंड सिंध बैंक में कायर्रत हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह शाया हो चुके हैं और कुछ ग़ज़लें अच्छे ग़ज़ल गायकों ने भी गाईं हैं और पत्र-पत्रिकाओं में आप अकसर छपते रहते हैं। अपने ग़ज़ल संग्रह के पेश-लफ़्ज़ में आप ने कहा है-"ग़ज़ल की पाबंदियाँ अकसर शायरों को खलती रही हैं। इसमें कोई शक़ नहीं ग़ज़ल के शे’र घड़ने में मेहनत और कविश दरकार है। बहुत से शायरों ने इस मेहनत से बचने के लिए ग़ज़ल के उसूलों को दरकिनार कर दिया और इसे जदीदियत का नाम दे दिया जबकि सच्चाई ये है कि ग़ज़ल के उसूलों को निभाते हुए और उसके मिज़ाज को कायम रखते हुए भी उसमें नये रंग भरने की गुंज़ाइश है"ये बात बिल्कुल सही भी है। ग़ज़ल का हुस्न इसके उसूलों से ही है। जब तक कोई मिसरा बहर में ढल नहीं जाता उसमें कशिश पैदा नहीं होती। अगर बिना बहर के कहना है तो नज़्म कह लें ग़ज़ल ही क्यों । जदीदियत ख़यालों मे होनी चाहिए। आप ग़ज़ल की बुनियाद (अरूज़)के साथ छेड़-छाड़ नहीं कर सकते , इसके उपर महल अपनी मर्ज़ी का बना सकते हो। उर्दू ज़बान में अलग-अलग भाषाओं की मिठास है और इसका अपना एक ख़ास मिज़ाज है। इसी मिज़ाज को अपने दामन में समेटे हुए हाज़िर हैं अम्बालवी साहब की ये ग़ज़लें-

शे’र मेरे तो हैं बस हर्फ़े-तसल्ली की तरह
मैं मसीहा नहीं सूली पे चढ़ाओ न मुझे

एक

यूँ तो एक उम्र साथ-साथ हुई
जिस्म की रूह से न बात हुई

क्यों ख़यालों मे रोज़ आते हैं
इक मुलाक़ात जिनके साथ हुई

कितना सोचा था दिल लगाएँगे
सोचते-सोचते हयात हुई

लाख ताकीद हुस्न करता रहा
इश्क़ से ख़ाक अहतियात हुई

इक फ़क़त वस्ल का न वक़्त हुआ
दिन हुआ रोज, रोज़ रात हुई

क्या बताएँ बिसात ज़र्रे की
ज़र्रे-ज़र्रे से कायनात हुई

शायद आई है रुत चुनावों की
कल जो कूचे में वारदात हुई

क्या थी मुशकिल *विसाले-हक़ में "सदा"
तुझ से बस रद्द न तेरी ज़ात हुई

*विसाले-हक़--प्रभु मिलन

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112

दो

दिल न माना मना के देख लिया
लाख समझा-बुझा के देख लिया

वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठाके देख लिया

लोग कहते हैं दिल लगाना जिसे
रोग वो भी लगा के देख लिया

बेवफ़ाई है तेरी रग-रग में
आज़मा, आज़मा के देख लिया

ज़ख्म दिल का है लादवा यारो
चारागर को दिखाके देख लिया

उनसे निभता नहीं कोई रिश्ता
दोस्त, दुशमन बना के देख लिया

उनका नज़रें चुरा के देखना भी
उनसे नज़रें चुरा के देख लिया

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112

तीन

दाग़े-दिल दुनिया की नज़रों से छुपाने के लिए
दिल जो रोए भी तो हँस देंगे दिखाने के लिए

लीजिए *रस्में-मुदारात निभाने के लिए
हम भी पी लेते हैं यारों को पिलाने के लिए

ज़िंदगी रस्म है इक मौत से पहले शायद
साँस लेते रहो तुम रस्म निभाने के लिए

ख़ान-ए-दिल पे तेरी याद है क़ाबिज़ वर्ना
दर्द क्या-क्या नहीं इस घर को सजाने के लिए

रंग लाई है "सदा" खूब तेरी *हक़गोई
चार कांधे न मिले लाश उठाने के लिए

रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22

हक़गोई-सच बयानी , रस्में-मुदारात -मेहमाँ नवाज़ी

8 comments:

माधव( Madhav) said...

wah wah wah wah wha

नीरज गोस्वामी said...

वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठा के देख लिया

बहुत बहुत शुक्रिया सतपाल जी सदा साहब की लाजवाब ग़ज़लें हम तक पहुँचाने के लिए...आपने सच कहा ग़ज़ल अगर अपने अरूज़ में लिखी जाये तो ही हसीं लगती है...सदा साहब अपनी ग़ज़लों से आपकी बात पर मोहर लगा रहे हैं...
नीरज

निर्मला कपिला said...

सदा साहिब की गज़लें बहुत पसंद आयी। बधाई और आपका आभर इन्हें पढवाने के लिये

रंजन गोरखपुरी said...

वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठा के देख लिया

मेरे लिए ये हासिल-ए-तारीख शेर है! शायर की कल्पना कहाँ कहाँ तक जा सकती है, इस बात का स्पष्ट उदाहरण है ये लाजवाब शेर! सदा साहब से ता'र्रुफ़ कराने के लिए सतपाल साहब को साधुवाद!

वीरेन्द्र जैन said...

बात जितनी सरालता सहजता से कही जाती है वह उतना गहरा असर करती है
वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठा के देख लिया
या
उनसे निभता नहीं कोई रिश्ता
दोस्त दुश्मन बना के देख लिया

तिलक राज कपूर said...

सदा साहब की ग़ज़लें पुष्टि करती हैं कि ग़ज़ल कहने के लिये सामान्‍य बोलचाल की सीधी सादी भाषा कम नहीं होती। ग़ज़ल-1 ने तो दिल जीत लिया।

Unknown said...

bahut khub

kavi kulwant said...

rajendra paal ji ki teeno ghazalon me nayapan hai