Saturday, March 1, 2014

श्रद्धा जैन की एक ग़ज़ल




















ग़ज़ल 


बात दिल की कह दी जब अशआर में
ख़त किताबत क्यूँ करूँ बेकार में

मरने वाले तो बहुत मिल जाएंगे
सिर्फ़ हमने जी के देखा प्यार में

कैसे मिटती बदगुमानी बोलिये
कोई दरवाज़ा न था दीवार में

आज तक हम क़ैद हैं इस खौफ से
दाग़ लग जाए न अब किरदार में

दोस्ती, रिश्ते, ग़ज़ल सब भूल कर
आज कल उलझी हूँ मैं घर बार में

5 comments:

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब .. लाजवाब शेर हैं श्रद्धा जी की इस गज़ल के ... मज़ा आ गया ...

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

उम्दा ग़ज़ल....बहुत दिनों बाद श्रद्धा जी की कोई रचना पढने को मिली....बधाई...

Vandana Ramasingh said...


कैसे मिटती बदगुमानी बोलिये
कोई दरवाज़ा न था दीवार में

बहुत खूब

तिलक राज कपूर said...

कैसे मिटती बदगुमानी बोलिये
कोई दरवाज़ा न था दीवार में
बहुत खूब, क्‍या बात है।

Unknown said...

दोस्ती, रिश्ते, ग़ज़ल सब भूल कर
आज कल उलझी हूँ मैं घर बार में

वाह