Saturday, October 17, 2009
दिवाली विशेष
जैसे दिवाली चराग़ों के बिना अधूरी लगती है वैसे ही शायरी भी चरागों के बिना अधूरी है। ऐसा शायद ही कोई शायर हो जिसने चराग़ पर दो-चार शे’र न कहें हों। दिवाली का मौक़ा है , तो सोचा क्यों न चरागों को एक जगह तरतीब से जलाया जाए। शायर जो चराग़ जलाता है वो चराग़ कहीं तो अँधेरा चूसते हैं, कहीं आँधियों से टक्कर लेते हैं, कहीं दमागों को रौशन करते हैं और कहीं तनहाइयों के साथी हैं। आजकल शायर शम्मा कम जलाते हैं लेकिन चराग़ हर जगह रौशन करते हैं। दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ मुलाहिज़ा फ़रमांए चरागों पर कहे ये खूबसूरत अशआर-
दिल है गोया चराग किसी मुफलिस का
शाम ही से बुझा सा रहता है..मीर
बू-ए-गुल, नालह-ए-दिल, दूद-ए-चिराग़-ए-मह्फ़िल
जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशां निकला..गा़लिब
यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़..फ़िराक़
ये चिराग़ बेनज़र है ये सितारा बेज़ुबाँ है
अभी तुझसे मिलता जुलता कोई दूसरा कहाँ है..बशीर बद्र
कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग मय्यसर नहीं शहर के लिए.. दुश्यंत
दिल में दिए जला के अंधेरे में जीना सीख
बुझते हुए चिराग़ का मातम फ़ुज़ूल है..कौसर सद्दीकी
मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चिराग़ कोई चिराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ..बशीर बद्र
हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना.
रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन.. अहमद फ़राज़
आज की शब ज़रा ख़ामोश रहें सारे चराग़
आज महफिल में कोई शम्अ फ़रोजां होगी..नुसरत मेंहदी
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
यह इक चिराग़ कई आँधियों पे भारी है..वसीम बरेलवी
ये किस मुक़ाम पे ले आई जुस्तजू तेरी
कोई चिराग़ नहीं और रोशनी है बहुत..किर्श्न बिहारी नूर
जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग का अपना मकां नहीं होता.. वसीम बरेलवी
कोई फूल बन गया है, कोई चाँद, कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गए हैं तेरी अंजुमन में जल के
मेरे मन की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
अभी तो झलकता है राम का बनवास आँखों में..साग़र पालमपुरी
यही चिराग़ जो रोशन है बुझ भी सकता था
भला हुआ कि हवाओं का सामना न हुआ..महताब हैदर नक़बी
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो ..अहमद फ़राज़
हमने हर गाम पे सजदों के जलाये हैं चिराग़
अब तिरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है..जां निसार अख़तर
आईये चराग-ए-दिल आज हीं जलाएँ हम,
कैसी कल हवा चले कोई जानता नहीं
चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे
अजब चराग हूँ दिन रात जलता रहता हूँ
मैं थक गया हूँ हवा से कहो बुझाए मुझे
मंज़िल न दे चराग न दे हौसला तो दे,
तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे,.
तूने जलाईं बस्तियाँ ले-ले के मशअलें
अपना चराग़ अपने ही हाथों बुझा के देख.. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'
रोशन रहे चराग़ उसी की मज़ार पर
ताज़िन्दगी जो दिल में उजाला लिए जिया..चिराग जैन
हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर..जां निसार अख़तर
अंधेरे जश्न मनाने की भूल करते हैं
चिराग़ अब भी हवाओं पे वार करता है..इसहाक़ असर इन्दौरी
जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को,
सौ चिराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं .. कैफ़ी आज़मी
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चिराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चिराग़
कहाँ से ढूँढ के लाऊं चराग़ से वो बदन
तरस गई हैं निगाहें कंवल-कंवल के लिए
चिराग़ हो कि ना हो, दिल जला के रखते हैं
हम आंधियों में भी तेवर बला के रखते हैं मिला..हसती
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चिराग़-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ ...इकबाल
इस एक ज़ौम में जलते हैं ताबदार चराग़
हवा के होश उड़ाएँगे बार - बार चराग़...बुनियाद हुसैन ज़हीन
उदास उदास शाम में धुआं धुआं चराग हैं
हमें तेरे ख्याल में मिली फकत चुभन चुभन ..मरयम गजाला
अब चराग ढूँढता हूँ के थोड़ी रौशनी मिले
अँधेरे में खो गया इक जरूरी सवाल मियाँ
हवाओं को थाम लो ये फुर्क़त की शाम है
आहिस्ता साँस लो कि अब बुझता चराग है
चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे
चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
हरेक मठ में जला फिर दिया दिवाली का,
हरेक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का..नज़ीर
तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों मे चराग
जब भी तू आए जगाता हुआ जादू आए
उन्हें चिराग़ कहाने का हक़ दिया किसने
अँधेरों में जो कभी रौशनी नहीं देते ..द्विजेंद्र द्विज
आज बिखरी है हवाओं में चरागों की महक
आज रौशन है हवा चाँद-सितारों की तरह..सतपाल ख़याल
अब एक शे’र बहुत ही अज़ीम शायर का ,मोहतरम खुमार बाराबंकवी जिनका अंदाज़ ही निराला था।
आँखों के चराग़ों मे उजाले न रहेंगे
आ जाओ कि फिर देखने वाले न रहेंगे
और इस सुहावनी शाम को खुमार साहब की ग़ज़ल सुनिए जिसे गाया है मेरे मनपसंद गायक हंस राज हंस ने जिसकी आवाज़ दरगाहों में जलते चरागों सी रौशन है -
आज की ग़ज़ल से जुड़े तमाम शायरों और पाठकों को दीवाली की ढेर सारी शुभकामनाएं!!
Saturday, October 10, 2009
माधव कौशिक की ग़ज़लें और परिचय
उर्दू में कही जाने वाली ग़ज़ल के लहजे के समानांतर ग़ज़ल की एक नवीन धारा बह रही है जिसे देवनागरी मे लिखा जा रहा है और यकीनन इसने एक नया लहजा इख्तियार किया है जो सराहा भी जा रहा है। लेकिन मैं ये भी मानता हूँ कि उर्दू में कही जाने वाली ग़ज़ल को सिरे से नकार कर आप इस विधा को अलग दिशा नहीं दे सकते और आज तो दोनों भाषाएँ के शायर एक दूसरे से बहुत कुछ सीख भी रहे हैं और यही एक सही रास्ता भी है।
खै़र ! आज हम इसी नई धारा के एक क़दावर शायर से आपका परिचय करवा रहें हैं। इनका नाम है माधव कौशिक और आप चंडीगड़ साहित्य अकादमी के सचिव हैं, इनके अब तक नौ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 1953 में हरियाणा में जन्में माधव जी एक इमानदार शायर हैं। अपने ग़ज़ल संग्रह की भूमिका में आपने कहा है कि आप साहित्य में इश्तेहारबाजी में यकीन नहीं रखते और घर पर बैठकर पढ़ना लिखना पसंद करते हैं। आपकी तीन ग़ज़लें और कुछ अशआर हाज़िर हैं-
एक
पानी से धुंध, धूप, हवा काट रहा हूँ
किस्मत मेरे जो था लिखा काट रहा हूँ
अपने किए हुए की खु़दा जाने कब मिले
अब तक तो दूसरों की सज़ा काट रहा हूँ
ग़र दे सके तो मेरी तू हिम्मत की दाद दे
पलकों से पत्थरों की शिला काट रहा हूँ
ए दोस्त! बुरे वक़्त की संगीनियां तो देख
बैठा हूँ जिसपे वो ही तना काट रहा हूँ
छंटते ही नहीं ज़ेहन से सवालों के अँधेरे
हर रोज़ रौशनी का गला काट रहा हूँ
दो
पनघट की पीर गोरी की गागर न ला सके
शहरों में अपने गांव का मंज़र न ला सके
अब रहज़नो कुछ आप ही मेरी मदद करो
हम को सही मुका़म पे रहबर न ला सके
जो आदमी के ज़िस्म में रहता है पोर-पोर
उस आदमी को ज़िस्म से बाहर न ला सके
पानी से प्यास बुझ न सकी अपने दौर की
अमृत को हम ज़मींन से उपर न ला सके
बरसों से उसको हाथ में थामे रहे मगर
अधरों के पास प्यास का साग़र न ला सके
सच बोलने की दोस्तो इतनी सज़ा मिली
ग़र बच गई जुबान तो हम सर न ला सके
तीन
भरोसा क्या करे कोई तिजारत के हवालों का
न सत्ता का यकीं हमको, न सत्ता के दलालों का
दिखाई भी नहीं देता हमें उगता हुआ सूरज
अँधेरा तल्ख़ है इतना सवालों ही सवालों का
शुरू से अंत तक सब चित्र नंगे, शब्द भी नंगे
किसी वैश्या से भी बदतर हुआ हुलिया रिसालों का
तुम्हारी आँख में आँसू चमकते हैं मगर ऐसे
कि जैसे धूप में दमके कलश ऊँचे शिवालों का
कुछ चुनिंदा अशआर-
बदल गया इंसान मशीनी पुर्ज़े में
हाथों की हिम्मत ख़तरे में लगती है
ख्वाब में भी दूसरा कोई कभी दिखता नहीं
जाने किस की आँख का काजल मेरी आँखों मे है
कोई बढ़ते हुए दरिया के कानों में कहे जाकर
बहुत मुशकिल से मिट्टी का मकां तैयार होता है
इंसानीयत के दायरे मज़हब से दूर हैं
गीता से हर कुरान से आगे की बात कर
शायर का पता-
कवि माधव कौशिक
3277, सेक्टर - 45 डी
चंडीगढ़
Wednesday, October 7, 2009
तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं
इस बार का तरही मिसरा है-
"तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं"
बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन x 4
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काफ़िया- पहचान, मान, जान आदि।
रदीफ़- लेते हैं।
ये मिसरा फ़िराक़ गोरखपुरी की मशहूर ग़ज़ल से लिया गया है।
ज़्यादा लंबी ग़ज़लें न भेजें और भेजने से पहले अच्छी तरह जाँच-परख लें। आप अपनी ग़ज़लें 20.10.2009 के बाद ही भेजें।पहली किश्त नवंबर के दूसरे हफ़्ते में प्रकाशित होगी।
Thursday, October 1, 2009
मुनव्वर जी की ताज़ा ग़ज़ल
कल रात एक शे’र ऐसा नज़र से गुज़रा कि मैं अंदर तक सिहर उठा और ये शे’र अपने आप में एक फ़लसफ़ा है, आप इस शे’र पर पूरा एक ग्रंथ लिख सकते हैं। ये शे’र हमारे कई सवालों का- कि शे’र कैसा होना चाहिए, ग़ज़ल का मिज़ाज कैसा हो, ये फ़न कैसे सीखा जाए, बात कहने का हुनर कैसा हो आदि का जवाब है। इस शे’र के ज़िक्र से पहले बशीर साहब का ये शे’र देखिए-
ये शबनमी लहजा है आहिस्ता ग़ज़ल पढ़ना
तितली की कहानी है फूलों की ज़बानी है
ये शे’र ग़ज़ल की नज़ाकत, अदा, खूबसूरती के बारे में कहा गया बेहतरीन शे’र है।बाकई ग़ज़ल शबनमी लहजा चाहती है और फूल का तितली की कहानी बयान करने जैसा ही है ग़ज़ल कहना।लेकिन जो शे’र कल मैनें पढ़ा वो इससे आगे की बात करता है। लीजिए शे’र हाज़िर है जो अपने आप में किसी दीवान से कम नहीं। आप चाहें तो इस पर Ph.d कर सकते हैं।
शे’र है-
ये फ़न कोई फ़क़ीर सिखाएगा आपको
हीरे को एक फूल की पत्ती से काटना
और ये शे’र फ़क़ीर जैसे शायर जनाब मुनव्वर राना का है। बाक़ई शायरी का फ़न किताबों से नहीं इबादतगा़हों से सीखना पड़ता है और हीरे को फूल की पत्ती से काटने जैसा हुनर है शायरी। जो नफरत तक को मुहव्बत से काट देती है और जब आज सुबह उनसे बात हुई तो उन्होंने कहा कि" मैं तो कहता हूँ कि हर सियासी और सरकारी अफ़सर की तालीम का ये हिस्सा होना चाहिए कि वो पीरों-फ़क़ीरों की मज़ारों पर जाकर इस हुनर की तालीम लें कि कैसे हीरे जैसे सख़्त मुद्दों,.चोरी, दंगा, भूक़,ज़हालत,नफरत, फ़िरकापरस्ती आदि को फूल की पत्ती से काटना है, ख़त्म करना है।" ये बात शायरी पर भी बराबर लागू होती है कोई अच्छा शे’र कहना भी किसी हीरे को फूल की पत्ती से काटने से कम नही और इस इस फ़न के माहिर हैं-मुनव्वर राना। मुनव्वर राना उन शायरों मे शुमार होते हैं जिनकी बदौलत ग़ज़ल और अमीर हुई और मैं तो बस इतना ही कहूँगा कि शायर होना आसान है लेकिन मुनव्वर राना बनना आसान नहीं और इतनी भीड़ में अपनी शायरी की चमक से वो अलग नज़र आते हैं। उनकी इजाज़त के साथ मुलाहिज़ा फ़रमाइए उनकी ये ग़ज़ल
ग़ज़ल
इतनी तवील उम्र को जल्दी से काटना
जैसे दवा की पन्नी को कैंची से काटना
छत्ते से छेड़छाड़ की आदत मुझे भी है
सीखा है उसने शहद की मक्खी से काटना
इन्सान क़त्ल करने के जैसा तो ये भी है
अच्छे भले शजर को कुल्हाड़ी से काटना
पानी का जाल बुनता है दरिया तो फिर बुने
तैराक जानता है हथेली से काटना
रहता है दिन में रात के होने का इंतज़ार
फिर रात को दवाओं की गोली से काटना
ये फ़न कोई फ़क़ीर सिखाएगा आपको
हीरे को एक फूल की पत्ती से काटना
मुमकिन है मैं दिखाई पड़ूँ एक दिन तुम्हें
यादों का जाल ऊन की तीली से काटना
इक उम्र तक बज़ुर्गों के पैरों मे बैठकर
पत्थर को मैने सीखा है पानी से काटना
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
मुझे इस बात खुशी है कि "आज की ग़ज़ल" अब उन अज़ीम शायरों तक पहुँच रही जो अपने आप में एक मिसाल हैं। मुनव्वर जी जैसे क़दावर शायर तक हमारा पहुँचना यकीनन एक दरिया को समंदर मिल जाने जैसा है। इस सब के पीछे द्विज जी का आशीर्वाद और आप मित्रों का स्नेह है।
Sunday, September 27, 2009
कृष्ण बिहारी 'नूर' की दो ग़ज़लें
इनका जन्म जन्म: 8 नवंबर 1925 लखनऊ में हुआ। इन्होंने शायरी में अपने सूफ़ियाना रंग से एक अलग पहचान बनाई। उर्दू और हिंदी दोनों से एक सा प्रेम करने वाले "नूर" 30 मई 2003 को इस संसार को अलविदा कह गए। इनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं-
एक
आते-जाते साँस हर दुख को नमन करते रहे
ऊँगलियां जलती रहीं और हम हवन करते रहे
कार्य दूभर था मगर ज्वाला शमन करते रहे
किस ह्रदय से क्या कहें इच्छा दमन करते रहे
साधना कह लीजिए चाहे तपस्या अंत तक
एक उजाला पा गए जिसको गहन करते रहे
दिन को आँखें खोलकर संध्या को आँखे मूँधकर
तेरे हर इक रूप की पूजा नयन करते रहे
हम जब आशंकाओं के परबत शिखर तक आ गए
आस्था के गंगाजल से आचमन करते रहे
खै़र हम तो अपने ही दुख-सुख से कुछ लज्जित हुए
लोग तो आराधना में भी ग़बन करते रहे
चलना आवश्यक था जीवन के लिए चलना पड़ा
’नूर’ ग़ज़लें कह के दूर अपनी थकन करते रहे
दो
बस एक वक्त का ख़ंजर मेरी तलाश में है
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है
मैं क़तरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है
मैं देवता की तरह क़ैद अपने मन्दिर में
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है
मैं जिसके हाथ में एक फूल देके आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है
मैं साज़िशों में घिरा इक यतीम शहज़ादा
यहीं कहीं कोई ख़ंजर मेरी तलाश में है
Sunday, September 20, 2009
अब्दुल हमीद" अदम" की ग़ज़लें
अब्दुल हमीद "अदम" अपनी ख़ास शैली और भाषा के लिए जाने जाते थे। उनका जन्म 1909में तलवंडी मूसा खाँ(पाकिस्तान में) हुआ था।उन्होंने बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी की और पाकिस्तान सरकार के ऑडिट एण्ड अकाउंट्स विभाग में ऊँचे ओहदे पर रहे। शराब के शौकीन इस शायर की ये पंक्तियां पढ़ें-
शिकन न डाल जबीं पर शराब देते हुए
ये मुस्कराती हुई चीज़ मुस्करा के पिला
सरूर चीज़ की मिक़दार पर नहीं मौकू़फ़
शराब कम है तो साकी नज़र मिला के पिला
आज वो हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वो अंदाज़ आज भी ज़िंदा है।भले ही आज ग़ज़ल एक अलग पहचान बना रही है लेकिन कभी हुस्नो-इश्क़ भी इसके ज़ेवर रहे हैं और इनका भी अपना ही स्थान है शायरी में , इन्हें पढ़ने-सुनने में कोई बुराई नहीं है , आप भी इस शायर की ग़ज़लों का आनंद लें।
एक
गिरह हालात में क्या पड़ गई है
नज़र इक महज़बीं से लड़ गई है
निकालें दिल से कैसे उस नज़र को
जो दिल में तीर बनकर गड़ गई है
मुहव्बत की चुभन है क़्ल्बो-जाँ* में
कहाँ तक इस मरज़ की जड़ गई है
ज़रा आवाज़ दो दारो-रसन* को
जवानी अपनी ज़िद्द पे अड़ गई है
हमें क्या इल्म था ये हाल होगा
"अदम" साहब मुसीबत पड़ गई है
क़्ल्बो-जाँ-दिल और जान,दारो-रसन-फाँसी
दो
डाल कर कुछ तही* प्यालों में
रंग भर दो मेरे ख़यालों में
ख्वाहिशें मर गईं ख़यालों में
पेच आया न उनके बालों में
उसने कोई जवाब ही न दिया
लोग उलझे रहे सवालों में
दैरो-काबे की बात मत पूछॊ
वाकि़यत* गुम है इन मिसालों में
आज तक दिल में रौशनी है "अदम"
घिर गए थे परी जमालों में
वाकि़यत-असलियत,तही-खाली
तीन
सर्दियों की तवील* राते हैं
और सौदाईयों सी बातें हैं
कितनी पुर नूर थी क़दीम* शबें
कितनी रौशन जदीद रातें हैं
हुस्न के बेहिसाब मज़हब हैं
इश्क़ की बेशुमार रातें हैं
तुमको फुर्सत अगर हो तो सुनो
करने वाली हज़ार बातें हैं
ज़ीस्त के मुख़्तसर से वक़्फ़े* में
कितनी भरपूर वारदातें हैं
तवील-लंबी,क़दीम-पुरानी,जदीद -नई,वक़्फ़े-अवधि
Tuesday, September 15, 2009
ज्ञान प्रकाश विवेक की ग़ज़लें और परिचय
30 जनवरी 1949 को हरियाणा मे जन्में ज्ञान प्रकाश विवेक चर्चित ग़ज़लकार हैं । इनके प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह हैं "प्यास की ख़ुश्बू","धूप के हस्ताक्षर" और "दीवार से झाँकती रोशनी", "गुफ़्तगू आवाम से" और "आँखों मे आसमान"। ये ग़ज़लें जो आपके लिए हाज़िर कर रहे हैं ये उन्होंने द्विज जी को भेजीं थीं ।
एक
उदासी, दर्द, हैरानी इधर भी है उधर भी है
अभी तक बाढ़ का पानी इधर भी है उधर भी है
वहाँ हैं त्याग की बातें, इधर हैं मोक्ष के चर्चे
ये दुनिया धन की दीवानी इधर भी है उधर भी है
क़बीले भी कहाँ ख़ामोश रहते थे जो अब होंगे
लड़ाई एक बेमानी इधर भी है उधर भी है
समय है अलविदा का और दोनों हो गए गुमसुम
ज़रा-सा आँख में पानी इधर भी है उधर भी है
हुईं आबाद गलियाँ, हट गया कर्फ़्यू, मिली राहत
मगर कुछ-कुछ पशेमानी इधर भी है उधर भी है
हमारे और उनके बीच यूँ तो सब अलग-सा है
मगर इक रात की रानी इधर भी है उधर भी है
(बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम)
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
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दो
तुम्हें ज़मीन मिली और आसमान मिला
हमें मिला भी तो विरसे में ख़ाकदान मिला
ज़रूर है किसी पत्थर के देवता का असर
कि जो मिला मुझे बस्ती में बेज़ुबान मिला
वो मेरे वास्ते पत्थर उबाल लाया है-
तू आके देख मुझे कैसा मेज़बान मिला
तू मुझसे पूछ कि बेघर को क्या हुआ हासिल
मिला मकान तो हिलता हुआ मकान मिला
सुना है जेब में बारूद भर के रखता था
जो शख़्स आज धमाकों के दरमियान मिला
तू उससे पूछ दरख़्तों की अहमियत क्या है
कि तेज़ धूप में जिसको न सायबान मिला
बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
तीन
लोग ऊँची उड़ान रखते हैं
हाथ पर आसमान रखते हैं
शहर वालों की सादगी देखो-
अपने दिल में मचान रखते हैं
ऐसे जासूस हो गए मौसम-
सबकी बातों पे कान रखते हैं
मेरे इस अहद में ठहाके भी-
आसुओं की दुकान रखते हैं
हम सफ़ीने हैं मोम के लेकिन-
आग के बादबान रखते हैं
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112
चार
तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीये क्यूँ बुझा के रखता था
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लकें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था
बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
पाँच
मुझे मालूम है भीगी हुई आँखों से मुस्काना
कि मैंने ज़िन्दगी के ढंग सीखे हैं कबीराना
यहाँ के लोग तो पानी की तरह सीधे-सादे हैं
कि जिस बर्तन में डालो बस उसी बर्तन-सा ढल जाना
बयाबाँ के अँधेरे रास्ते में जो मिला मुझको
उसे जुगनू कहूँ या फिर अँधेरी शब का नज़राना
वो जिस अंदाज़ से आती है चिड़िया मेरे आँगन में
अगर आना मेरे घर में तो उस अन्दाज़ से आना
न कुर्सी थी, न मेज़ें थीं, न उसके घर तक़ल्लुफ़ था
कि उसके घर का आलम था फ़कीराना-फ़कीराना
(बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम)
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
Saturday, September 12, 2009
नज़र में सभी की खु़दा कर चले -अंतिम किश्त
कभी रात रोके अगर रास्ता
सितारों की चूनर बिछा कर चले
पुर्णिमा जी का मैं शुक्रगुज़ार हूँ कि "आज की ग़ज़ल" के लिए उन्होंने नये ब्लाग हैडर तैयार किए। सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया जिन्होंने इस तरही को सफल बनाया और अपने तमाम शायर दोस्तों का मुफ़लिस जी का,मनु का,गौतम जी का,नीरज जी का, पुर्णिमा जी का और नए शायर तिलक राज कपूर और आशीष राज हंस का और बर्की साहब का और अपने गुरू जी श्री द्विजेन्द्र द्विज जिनके आशीर्वाद से ये सब हो रहा है। तो लीजिए अंतिम किश्त हाज़िर है-
पूर्णिमा वर्मन
अँधेरे में रस्ता बना कर चले
दिये हौसलों के जला कर चले
वे अपनो की यादों में रोए नहीं
वतन को ही अपना बना कर चले
कभी रात रोके अगर रास्ता
सितारों की चूनर बिछा कर चले
खड़े सरहदों पे निडर पहरुए
वो दिन-रात सब कुछ भुला कर चले
जिए ऐसे माटी के पुतले में वो
नज़र में सभी की खु़दा कर चले
सतपाल ख़याल
तुझे ज़िंदगी यूँ बिता कर चले
कि पलकों से अंगार उठा कर चले
चले जब भी तनहा अँधेरे में हम
तो मुट्ठी मे जुगनू छुपा कर चले
ग़ज़ल की भला क्या करूं सिफ़त मैं
ये क़ूज़े में दरिया उठा कर चले
हरिक मोड़ पर थी बदी दोस्तो
चले जब भी दामन बचा कर चले
कभी दोस्ती और कभी दुशमनी
निभी हमसे जितनी निभा कर चले
चले कर्ज़ लेकर कई सर पे हम
कई कर्ज़ थे जो अदा कर चले
हमीं थे जो इक *दिलशिकन यार को
नज़र में सभी की खु़दा कर चले
हुई दुशमनी की "खयाल" इंतिहा
मेरी खाक भी तुम उड़ा कर चले
*दिलशिकन-दिल तोड़ने वाला
Thursday, September 10, 2009
नज़र में सभी की खु़दा कर चले- चौथी किश्त
खुदाया रहेगी कि जायेगी जां
कसम मेरी जां की वो खा कर चले
मनु के इस खूबसूरत शे’र के साथ हाज़िर हैं अगली तीन तरही ग़ज़लें
डी.के. मुफ़लिस
जो सच से ही नज़रें बचा कर चले
समझ लो वो अपना बुरा कर चले
चले जब भी हम मुस्कुरा कर चले
हर इक राह में गुल खिला कर चले
हम अपनी यूँ हस्ती मिटा कर चले
मुहव्बत को रूतबा अता कर चले
लबे-बाम हैं वो मगर हुक़्म है
चले जो यहाँ सर झुका कर चले
इसे उम्र भर ही शिकायत रही
बहुत ज़िन्दगी को मना कर चले
वो बादल ज़मीं पर तो बरसे नहीं
समंदर पे सब कुछ लुटा कर चले
हमें तो खुशी है कि हम आपको
नज़र में सभी की खु़दा कर चले
चकाचौंध के इस छलावे में हम
खुद अपना ही विरसा भुला कर चले
किताबों में चर्चा उन्हीं की रही
ज़माने में जो कुछ नया कर चले
खुदा तो सभी का मददगार है
बशर्ते बशर इल्तिजा कर चले
कब इस का मैं 'मुफ़लिस' भरम तोड़ दूँ
मुझे ज़िन्दगी आज़मा कर चले
मनु बे-तख़ल्लुस
ये साकी से मिल हम भी क्या कर चले
कि प्यास और अपनी बढा कर चले
खुदाया रहेगी कि जायेगी जां
कसम मेरी जां की वो खा कर चले
चुने जिनकी राहों से कांटे वही
हमें रास्ते से हटा कर चले
तेरे रहम पर है ये शम्मे-उमीद
बुझाकर चले या जला कर चले
रहे-इश्क में साथ थे वो मगर
हमें सौ दफा आजमा कर चले
खफा 'बे-तखल्लुस' है उन से तो फिर
जमाने से क्यों मुँह बना कर चले
आशीष राजहंस
तेरे इश्क का आसरा कर चले
युँ तै उम्र का फ़ासला कर चले
थे आंखों में बरसों सँभाले हुए
तेरे नाम मोती लुटा कर चले
सदा की तरह बात हमने कही
सदा की तरह वो मना कर चले
खुदा ही है वो, हम ये कैसे कहें-
नज़र में सभी की खु़दा कर चले
है रोज़े-कयामत का अब इन्तज़ार
खयाले-विसाल अब मिटा कर चले
कभी भी मिले तो गिला न कहा
हर इक बार खुद से गिला कर चले
Monday, September 7, 2009
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले -तीसरी किश्त
नए और पुराने ग़ज़लकारों को एक साथ पेश करने से नए शायरों को सीखने को भी मिलता है और उनका हौसला भी बढ़ता है। इसी प्रयास के साथ हाज़िर हैं अगली तीन ग़ज़लें-
भूपेन्द्र कुमार
वो सर प्रेमियों के कटा कर चले
पुजारी अहिंसा के क्य़ा कर चले
तसव्वुर में तारी ख़ुदा ही तो था
जो रूठे सनम को मना कर चले
था मुश्किल जिसे करना हासिल उसे
निगाहों-निगाहों में पा कर चले
ख़यालों में जिनके थे डूबे वही
इशारों पे अपने नचा कर चले
भगीरथ तो लाया था गंगा यहाँ
धरा हम मगर ये तपा कर चले
तिलक राज कपूर 'राही ग्वालियरी'
जहां को कई तो सता कर चले
कई इसके दिल में समा कर चले।
मसीहा हमें वो बता कर चले
नज़र में सभी की खुदा कर चले
हमें रौशनी की थी उम्मीद पर
वो आये, चमन को जला कर चले
अकेला हूँ, लेकिन मैं तन्हा नहीं
वो यादों को अपनी बसाकर चले
न ‘राही’ को शिकवा शिकायत रही
यहॉं की यहीं पर भुला कर चले।
देवी नांगरानी
जो काँटों से उलझा किये उम्र भर
वो फूलों से दामन बचाकर चले
नहीं रूबरू हैं वो आते कभी
जो आंखें मिलाकर चुराकर चल
नयी रस्में उल्फत की आती रहीं
समय कुछ सलीके सिखाकर चले
मेरा हाल भी कुछ है उनकी तरह
जो हाल अपने दिल में दबाकर चले
जो शबनम की मानिंद बरसते थे कल
वही आज बिजली गिराकर चले
वफ़ा इस कलम ने की देवी से कुछ
तो कुछ लफ्ज़ उससे निभाकर चले
Friday, September 4, 2009
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले -दूसरी किश्त
न होगी कभी जिसकी कम रोशनी
वो शम-ए- मुहब्बत जला कर चले
बर्क़ी जी के इस खूबसूरत शे’र के साथ हाज़िर हैं अगली तीन ग़ज़लें-
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
जो था अर्ज़ वह मुद्दआ कर चले
जफाओं के बदले वफा कर चले
कोई उसका इनआम दे या न दे
जो था फ़र्ज़ अपना अदा कर चले
है वादा ख़िलाफ़ी तुम्हारा शआर
किया था जो वादा निभा कर चले
खटकता है तुमको हमारा वजूद
हमीं थे जो सब कुछ फ़िदा कर चले
नहीं है कोई अपना पुरसान-ए-हाल
जो कहना था हमको सुना कर चले
सुनूँ मैं भी तुम यह बताओ कहां
मेरा ख़ून-ए-नाहक़ बहा कर चले
सितम सह के भी हमने उफ तक न की
हम उसके लिए यह दुआ कर चले
न होगी कभी जिसकी कम रोशनी
वो शम-ए- मुहब्बत जला कर चले
तुम ऐसे सनम हो जिसे हम सदा
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
नज़र अब चुराते हैं वह गुल अज़ार
जिन्हें सुर्ख़रू बारहा कर चले
यक़ीं तुमको मेरी बला से न आए
जो थी बदगुमानी मिटा कर चले
तबीयत है बर्क़ी की जिद्दत पसंद
किसी ने नहीं जो किया कर चले
प्रेमचंद सहजवाला
वो नज़रे-करम मुझ पे क्या कर चले
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
जो अपने थे वो सब दगा कर चले
परायों का अब आसरा कर चले
यहीं से वो गुज़रा किये आजकल
यही सोच कर गुल बिछा कर चले
किये नज़्र तुमने जो अरमान कल
वही आज लोरी सुना कर चले
सज़ा-ए-कज़ा उन मसीहाओं को
जो सच से हैं पर्दा हटा कर चले
मेरी हक़-बयानी का ये है सिला
वो मेरा घरौंदा जला कर चले
ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर
रहे-इश्क़ में हम यह क्या कर चले
कसक दिल की किसको सुना कर चले
ग़मो- दर्द जिसने न समझे कभी
उसे ज़ख़्मे-दिल क्यों दिखा कर चले
कहीं हसरतें आह भरती रहीं
कही जामे-उलफ़त लुढ़ा कर चले
वह जाज़िब नज़र हो गया पैरहन
जिसे आप तन पर सजा कर चले
जो रस्म-ए-वफ़ा तर्क करते रहे
वही बा वफ़ा से गिला कर चले
भला इश्क़ क्यूँ हुस्न-ए-मग़रूर से
बता आजज़ी इल्तेजा कर चले
वो सुन कर मेरी दास्तान-ए-अलम
बडे नाज़ से मुस्कुरा कर चले
चली ज़ुलमत-ए-शब की आंधी बहुत
दीया हम भी सर पर जला कर चले
न था जिस सनम का कोई उसको हम
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
Wednesday, September 2, 2009
नज़र में सभी की खु़दा कर चले - पहली किश्त
ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को
ख़िराज—ए—अक़ीदत अदा कर चले
इस तरही का आगाज़ हम स्व: साग़र साहब की ग़ज़ल से कर रहे हैं। हाज़िर हैं पहली तीन ग़ज़लें-
मनोहर शर्मा’साग़र’ पालमपुरी
इरादे थे क्या और क्या कर चले
कि खुद को ही खुद से जुदा कर चले
अदा यूँ वो रस्म—ए—वफ़ा कर चले
क़दम सूए—मक़्तल उठा कर चले
ये अहले-सियासत का फ़र्मान है
न कोई यहाँ सर उठा कर चले
उजाले से मानूस थे इस क़दर
दीए आँधियों में जला कर चले
करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं
क़दम से क़दम जो मिला कर चले
जिन्हें रहबरी का सलीक़ा न था
सुपुर्द उनके ही क़ाफ़िला कर चले
ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को
ख़िराज़—ए—अक़ीदत अदा कर चले
गौतम राजरिषी
हुई राह मुश्किल तो क्या कर चले
कदम-दर-कदम हौसला कर चले
उबरते रहे हादसों से सदा
गिरे, फिर उठे, मुस्कुरा कर चले
लिखा जिंदगी पर फ़साना कभी
कभी मौत पर गुनगुना कर चले
वो आये जो महफ़िल में मेरी, मुझे
नजर में सभी की खुदा कर चले
बनाया, सजाया, सँवारा जिन्हें
वही लोग हमको मिटा कर चले
खड़ा हूँ हमेशा से बन के रदीफ़
वो खुद को मगर काफ़िया कर चले
उन्हें रूठने की है आदत पड़ी
हमारी भी जिद है, मना कर चले
जो कमबख्त होता था अपना कभी
उसी दिल को हम आपका कर चले
जोगेश्वर गर्ग
कदम से कदम जो मिला कर चले
वही चोट दिल पर लगा कर चले
न लौटे, न देखा पलट कर कभी
कसम आपकी जो उठा कर चले
सज़ा दे रहा यूँ ज़माना हमें
कि जैसे फ़क़त हम खता कर चले
उठायी, मिलाई, झुकाई नज़र
हमें इस अदा पर फना कर चले
न सोचा, न समझा मगर हम उसे
नज़र में सभी की खुदा कर चले
नहीं चाहिए वो तरक्की हमें
अगर आदमीयत मिटा कर चले
उन्हें चैन कैसे मिलेगा भला
किसी का अगर दिल दुखा कर चले
न "जोगेश्वरों" की जरूरत रही
यहाँ से उन्हें सब विदा कर चले
Friday, August 28, 2009
पदम श्री बेकल उत्साही- ग़ज़लें और परिचय
पहले तुम वक़्त के माथे की लक़ीरों से मिलो
जाओ फुटपाथ के बिखरे हुए हीरों से मिलो
पदम श्री लोदी मोहम्मद शफ़ी खान उर्फ़ बेकल उत्साही शायरी की दुनिया का एक चमकता सितारा है। इनका जन्म 1924 उ.प्र. मे हुआ। इन्होंने हिंदी,उर्दू मे ग़ज़लें नज़्में और अबधि में गीत भी लिखे हैं।अज़ीम शायर जिगर मुरादाबादी के प्रिय शिष्य रहे हैं और करीब 20 पुस्तकें लिख चुके हैं।ग़ज़लों मे अपने खास अंदाज़ के लिए जाने जाते हैं। इनके दोहे भी बहुत चर्चित हुए हैं।
आज की ग़ज़ल पर हम कोई भी ग़ज़ल शायर की अनुमति के बिना नहीं छापते। फोन पर उनसे बात करके ये ग़ज़लें यहाँ हाज़िर कर रहे हैं और हमें खु़शी है कि इस क़द के शायर ने इस पत्रिका के लिए शुभकामनाएँ भेजी हैं। हाज़िर हैं पाँच ग़ज़लें-
एक
ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है
पहुँच जाती हैं दुशमन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है
अजब है आजकल की दोस्ती भी, दोस्ती ऐसी
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है
तेरी वादी से हर इक साल बर्फीली हवा आकर
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है
किसी कुटिया को जब "बेकल"महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है
दो
वो तो मुद्दत से जानता है मुझे
फिर भी हर इक से पूछता है मुझे
रात तनहाइयों के आंगन में
चांद तारों से झांकता है मुझे
सुब्ह अख़बार की हथेली पर
सुर्खियों मे बिखेरता है मुझे
होने देता नही उदास कभी
क्या कहूँ कितना चाहता है मुझे
मैं हूँ बेकल मगर सुकून से हूँ
उसका ग़म भी संवारता है मुझे
तीन
सुनहरी सरज़मीं मेरी, रुपहला आसमाँ मेरा
मगर अब तक नहीं समझा, ठिकाना है कहाँ मेरा
किसी बस्ती को जब जलते हुए देखा तो ये सोचा
मैं खुद ही जल रहा हूँ और फैला है धुआँ मेरा
सुकूँ पाएँ चमन वाले हर इक घर रोशनी पहुँचे
मुझे अच्छा लगेगा तुम जला दो आशियाँ मेरा
बचाकर रख उसे मंज़िल से पहले रूठने वाले
तुझे रस्ता दिखायेगा गुबारे-कारवाँ मेरा
पड़ेगा वक़्त जब मेरी दुआएँ काम आयेंगी
अभी कुछ तल्ख़ लगता है ये अन्दाज़-ए-बयाँ मेरा
कहीं बारूद फूलों में, कहीं शोले शिगूफ़ों में
ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे, है यही जन्नत निशाँ मेरा
मैं जब लौटा तो कोई और ही आबाद था "बेकल"
मैं इक रमता हुआ जोगी, नहीं कोई मकाँ मेरा
चार
जब दिल ने तड़पना छोड़ दिया
जलवों ने मचलना छोड़ दिया
पोशाक बहारों ने बदली
फूलों ने महकना छोड़ दिया
पिंजरे की सम्त चले पंछी
शाख़ों ने लचकना छोड़ दिया
कुछ अबके हुई बरसात ऐसी
खेतों ने लहकना छोड़ दिया
जब से वो समन्दर पार गया
गोरी ने सँवरना छोड़ दिया
बाहर की कमाई ने बेकल
अब गाँव में बसना छोड़ दिया
पाँच
हम को यूँ ही प्यासा छोड़
सामने चढ़ता दरिया छोड़
जीवन का क्या करना मोल
महँगा ले-ले, सस्ता छोड़
अपने बिखरे रूप समेट
अब टूटा आईना छोड़
चलने वाले रौंद न दें
पीछे डगर में रुकना छोड़
हो जायेगा छोटा क़द
ऊँचाई पर चढ़ना छोड़
हमने चलना सीख लिया
यार हमारा रस्ता छोड़
ग़ज़लें सब आसेबी हैं
तनहाई में पढ़ना छोड़
दीवानों का हाल न पूछ
बाहर आजा परदा छोड़
बेकल अपने गाँव में बैठ
शहरों-शहरों बिकना छोड़
शायर का पता-
गीतांजली सिविल लाइन
बलराम पुर (उ.प्र.)
Saturday, August 22, 2009
दीक्षित दनकौरी की ग़ज़लें और परिचय
भुवनेश्वर प्रसाद दीक्षित उर्फ़ दीक्षित दनकौरी जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं है। आप "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" के तीन खंडो का संपादन कर चुके हैं जिसमें देश के नये-पुराने ग़ज़लकारों को शामिल किया गया है और चौथे खंड की तैयारी कर रहे हैं। दिल्ली में अध्यापक हैं और देश-विदेश के मुशायरों मे शिरकत करते रहते हैं। उनकी दो ग़ज़लें हम हाज़िर कर रहे हैं. इनका ग़ज़ल संग्रह "डूबते-वक्त" जल्द प्रकाशित हो रहा है.
एक
मुद्दआ वयान हो गया
सर लहू-लुहान हो गया।
कै़द से रिहाई क्या मिली
तंग आसमान हो गया।
तेरे सिर्फ़ इक वयान से
कोई बेजुबान हो गया।
छिन गया लो कागज़े-हयात
ख़त्म इम्तिहान हो गया।
रख गया गुलाब क़ब्र पर
कौन कद्रदान हो गया।
दो
आग सीने में दबाए रखिए
लब पे मुस्कान सजाए रखिए।
जिससे दब जाएँ कराहें घर की
कुछ न कुछ शोर मचाए रखिए।
गै़र मुमकिन है पहुँचना उन तक
उनकी यादों को बचाए रखिए।
जाग जाएगा तो हक़ मांगेगा
सोए इन्सां को सुलाए रखिए।
जुल्म की रात भी कट जाएगी
आस का दीप जलाए रखिए।
पता-
डी.डी.ए. फ्लैटस
७६, मानसरोवर पार्क
दिल्ली
Saturday, August 15, 2009
राजेश रेड्डी साहेब की पाँच और ग़ज़लें
कृष्ण बिहारी 'नूर'शायरी मे एक जाना पहचाना नाम है जिनकी शायरी सूफ़ियाना रंग में रंगी हुई है और मक़बूल भी है उनकी ग़ज़ल का ये मतला पढ़िए-
आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझ में
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में
यहाँ एक सूफ़ी शायर को खु़द में खु़दा का होना मजबूरन मानना पड़ रहा है और इस बात को रेड्डी साहब ने अपने अंदाज़ में यूँ कहा-
आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें
मुझको ये वहम नहीं है कि खु़दा है मुझमें
मेरे चहरे पे मुसलसल हैं निगाहें उसकी
जाने किस शख़्स को वो ढूँढ रहा है मुझमें
हँसना चाहूँ भी तो हँसने नहीं देता मुझको
ऐसा लगता है कोई मुझसे ख़फ़ा है मुझमें
मैं समुन्दर हूँ उदासी का अकेलेपन का
ग़म का इक दरिया अभी आके मिला है मुझमें
इक ज़माना था कई ख्वाबों से आबाद था मैं
अब तो ले दे के बस इक दश्त बचा है मुझमें
किसको इल्ज़ाम दूँ मैं किसको ख़तावार कहूँ
मेरी बरबादी का बाइस तो छुपा है मुझमें
दो-
शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
जानता हूँ रेत पर वो चिलचिलाती धूप है
जाने किस उम्मीद में फिर भी उधर जाता हूँ मैं
सारी दुनिया से अकेले जूझ लेता हूँ कभी
और कभी अपने ही साये से भी डर जाता हूँ मैं
ज़िन्दगी जब मुझसे मज़बूती की रखती है उमीद
फ़ैसले की उस घड़ी में क्यूँ बिखर जाता हूँ मैं
आपके रस्ते हैं आसाँ, आपकी मंजिल क़रीब
ये डगर कुछ और ही है जिस डगर जाता हूँ मैं
तीन
दुख के मुका़बिल खड़े हुए हैं
हम गुर्बत में बड़े हुए हैं
मेरी मुस्कानों के नीचे
ग़म के खज़ाने गड़े हुए हैं
जीवन वो जेवर है, जिसमें
अश्क के मोती जड़े हुए हैं
जा पहुँचा मंज़िल पे ज़माना
हम सोचों में पड़े हुए हैं
दुनिया की अपनी इक ज़िद है
हम अपनी पर अड़े हुए हैं
कुछ दुख हम लेकर आए थे
कुछ अपने ही गड़े हुए हैं
जो ख़त वो लिखने वाला है
वो ख़त मेरे पढ़े हुए हैं
चार
रोज़ सवेरे दिन का निकलना, शाम में ढलना जारी है
जाने कब से रूहों का ये ज़िस्म बदलना जारी है
तपती रेत पे दौड़ रहा है दरिया की उम्मीद लिए
सदियों से इन्सान का अपने आपको छलना जारी है
जाने कितनी बार ये टूटा जाने कितनी बार लुटा
फिर भी सीने में इस पागल दिल का मचलना जारी है
बरसों से जिस बात का होना बिल्कुल तय सा लगता था
एक न एक बहाने से उस बात का टलना जारी है
तरस रहे हैं एक सहर को जाने कितनी सदियों से
वैसे तो हर रोज़ यहाँ सूरज का निकलना जारी है
पाँच
इस अहद के इन्साँ मे वफ़ा ढूँढ रहे हैं
हम ज़हर की शीशी मे दवा ढूँढ रहे हैं
दुनिया को समझ लेने की कोशिश में लगे हम
उलझे हुए धागों का सिरा ढूँढ रहे हैं
पूजा में, नमाज़ों अज़ानों में, भजन में
ये लोग कहाँ अपना खु़दा ढूँढ रहे हैं
पहले तो ज़माने में कहीं खो दिया खु़द को
आईने में अब अपना पता ढूँढ रहे हैं
ईमाँ की तिज़ारत के लिए इन दिनों हम भी
बाज़ार में अच्छी सी जगह ढूँढ रहे हैं
शायर का पता-
राजेश रेड्डी
ए-403, सिल्वर मिस्ट, अमरनाथ टॉवर के पास,
सात बंगला, अंधेरी (प.) मुबंई - 61
Saturday, August 8, 2009
राजेश रेड्डी की ग़ज़लें और परिचय
22 जुलाई 1952 को जयपुर मे जन्मे श्री राजेश रेड्डी उन गिने-चुने शायरों में से हैं जिन्होंने ग़ज़ल की नई पहचान को और मजबूत किया और इसे लोगों ने सराहा भी .आप ने हिंदी साहित्य मे एम.ए. किया, फिर उसके बाद "राजस्थान पत्रिका" मे संपादन भी किया.आप नाटककार, संगीतकार, गीतकार और बहुत अच्छे गायक भी हैं.आप डॉ. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान हासिल कर चुके हैं.अभी आप आकाशवाणी मुंबई मे डायेरेक्टर सेल्स की हैसीयत से काम कर रहे हैं .जाने-माने ग़ज़ल गायक इनकी ग़ज़लों को गा चुके हैं. नेट पर इनकी कुछ ग़ज़लें हैं जिन्हें हम छाप सकते थे लेकिन जो ग़ज़लें नहीं हैं उनको हमने यहां हाज़िर किया है और ये राजेश जी की वज़ह से ही मुमकिन हुआ है मेरे एक अनुरोध पर उन्होंने अपना ग़ज़ल संग्रह "उड़ान"मुझे भेजा जिसकी बदौलत ये ग़ज़लें आप तक पहुंची और इसे हम दो या तीन हिस्सों मे पेश करेंगे. लीजिए पहली पाँच ग़ज़लें-
एक
ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा
वहाँ भी रेत का अंबार होगा
ये सारे शहर मे दहशत सी क्यों हैं
यकीनन कल कोई त्योहार होगा
बदल जाएगी इस बच्चे की दुनिया
जब इसके सामने अख़बार होगा
उसे नाकामियां खु़द ढूंढ लेंगी
यहाँ जो साहिबे-किरदार होगा
समझ जाते हैं दरिया के मुसाफ़िर
जहां में हूँ वहां मंझदार होगा
वो निकला है फिर इक उम्मीद लेकर
वो फिर इक दर्द से दो-चार होगा
ज़माने को बदलने का इरादा
तू अब भी मान ले बेकार होगा
दो
कोई इक तिशनगी कोई समुन्दर लेके आया है
जहाँ मे हर कोई अपना मुकद्दर लेके आया है
तबस्सुम उसके होठों पर है उसके हाथ मे गुल है
मगर मालूम है मुझको वो खंज़र लेके आया है
तेरी महफ़िल से दिल कुछ और तनहा होके लौटा है
ये लेने क्या गया था और क्या घर लेके आया है
बसा था शहर में बसने का इक सपना जिन आँखों में
वो उन आँखों मे घर जलने का मंज़र लेके आया है
न मंज़िल है न मंज़िल की है कोई दूर तक उम्मीद
ये किस रस्ते पे मुझको मेरा रहबर लेके आया है
तीन
निगाहों में वो हैरानी नहीं है
नए बच्चों में नादानी नहीं है
ये कैसा दौर है कातिल के दिल में
ज़रा सी भी पशेमानी नहीं है
नज़र के सामने है ऐसी दुनिया
जो दिल की जानी पहचानी नहीं है
जो दिखता है वो मिट जाता है इक दिन
नहीं दिखता वो, जो फ़ानी नहीं है
खु़दा अब ले ले मुझसे मेरी दुनिया
मेरे बस की ये वीरानी नहीं है
कोई तो बात है मेरे सुख़न मे
ये दुनिया यूँ ही दीवानी नहीं है
चार
मेरी ज़िंदगी के मआनी बदल दे
खु़दा इस समुन्दर का पानी बदल दे
कई बाक़ये यूँ लगे, जैसे कोई
सुनाते-सुनाते कहानी बदल दे
न आया तमाम उम्र आखि़र न आया
वो पल जो मेरी ज़िंदगानी बदल दे
उढ़ा दे मेरी रूह को इक नया तन
ये चादर है मैली- पुरानी, बदल दे
है सदियों से दुनिया में दुख़ की हकूमत
खु़दा! अब तो ये हुक्मरानी बदल दे
पाँच
डाल से बिछुड़े परिंदे आसमाँ मे खो गए
इक हकी़क़त थे जो कल तक दास्तां मे खो गए
जुस्तजू में जिसकी हम आए थे वो कुछ और था
ये जहाँ कुछ और है हम जिस जहाँ मे खो गए
हसरतें जितनी भी थीं सब आह बनके उड़ गईं
ख़्वाब जितने भी थे सब अश्के-रवाँ मे खो गए
लेके अपनी-अपनी किस्मत आए थे गुलशन मे गुल
कुछ बहारों मे खिले और कुछ ख़िज़ाँ में खो गए
ज़िंदगी हमने सुना था चार दिन का खेल है
चार दिन अपने तो लेकिन इम्तिहाँ मे खो गए
अगली पाँच ग़ज़लें जल्द हाज़िर करूंगा.
Thursday, August 6, 2009
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
इस बार का तर’ही मिसरा है :
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
पूरा शे’र है -
परस्तिश कि यां तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
बहरे-मुतका़रिब की एक मुज़ाहिफ़ शक्ल है जिसके अरकान हैं-
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
काफ़िया: सदा, वफ़ा,कहा आदि("आ" स्वर का काफ़िया)
रदीफ़: कर चले
खु़दा-ए-सुख़न मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल से ये मिसरा लिया है ये पूरी ग़ज़ल हाज़िर है
ग़ज़ल-
फ़कीराना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले
कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले
बहोत आरजू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सजदा करते ही करते गई
हक-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभी की खुदा कर चले
गई उम्र दर बंद-ऐ-फिक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले
इसी बहर में मीर ने कई ग़ज़लें कही लेकिन ये चार ग़ज़लें हाज़िर हैं ये ग़ज़लें नेट पर सिर्फ़ "आज की ग़ज़ल पर" ही हैं
एक
मुहव्बत ने खोया खपाया हमें
बहुत उन ने ढूंढा न पाया हमें
गहे* तर रहों गाह *खूबस्तां थी
इन आँखों ने क्या-क्या दिखाया हमें
मले डाले है दिल कोई इश्क़ में
ये क्या रोग यारब लगाया हमें
जवानी -दिवानी सुना क्या नहीं
हसीनों का मिलना भी भाया हमें
न समझी गई दुशमनी इश्क से
बहुत दोस्तों ने जताया हमें
कोई दम कल आई थी मजलिस में "मीर"
बहुत इस ग़ज़ल ने रुलाया हमें
*गहे-कभी, *खूबस्तां-खून से चिपकी हुई
दो
बंधा रात आंसू का कुछ तार सा
हुआ अब्रे-रहमत गुनहगार सा
कोई सादा ही उसको सादा कहे
लगे है हमें वो तो अय्यार सा
*गुलो-सर्व अच्छे सभी हैं वले
न निकला चमन से कोई यार सा
मगर आँख तेरी भी चिपकी कहीं
टपकता है चितवन से कुछ प्यार सा
*गुलो-सर्व- फूल और पेड़
तीन
चलें हम अगर तुमको इकराह है
फ़कीरों की अल्लाह अल्लाह है
चिरागाने-ग़ुल से है क्या रौशनी
गुलिस्तां किसू की क़दमगाह है
मुहव्बत है दरिया मे जा डूबना
कुएं में गिरना यही चाह है
कली सा हो कहते हैं मुख यार का
नहीं मोतबर कुछ ये अफ़वाह है
चार
फ़िराक आँख लगने की जा ही नहीं
पलक से पलक आशना ही नहीं
मुहव्बत यहां की तहां हो चुकी
कुछ इस रोग की है दवा ही नहीं
वो क्या कुछ नहीं हुस्न के शहर में
नही है तो रस्में-वफ़ा ही नहीं
नहीं दैर अगर मीर काबा तो है
हमारा कोई क्या ख़ुदा ही नहीं
इसी बहाने बशीर बद्र साहब की इसी बहर मे लिखी ग़ज़लों का लुत्फ़ लीजिए
बशीर बद्र
ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे
ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे
हँसो आज इतना कि इस शोर में
सदा सिसकियों की सुनाई न दे
अभी तो बदन में लहू है बहुत
कलम छीन ले रौशनाई न दे
मुझे अपनी चादर से यूँ ढाँप लो
ज़मीं आसमाँ कुछ दिखाई न दे
ग़ुलामी को बरकत समझने लगें
असीरों को ऐसी रिहाई न दे
मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए
जहां से मदीना दिखाई न दे
मैं अश्कों से नाम-ए-मुहम्मद लिखूँ
क़लम छीन ले रौशनाई न दे
ख़ुदा ऐसे इरफ़ान का नाम है
रहे सामने और दिखाई न दे
बशीर बद्र
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
मुक़द्दर में चलना था चलते रहे
कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मेरे पाँव शोलों पे चलते रहे
मेरे रास्ते में उजाला रहा
दिये उस की आँखों के जलते रहे
वो क्या था जिसे हमने ठुकरा दिया
मगर उम्र भर हाथ मलते रहे
मुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुख़ी
किराये के घर थे बदलते रहे
सुना है उन्हें भी हवा लग गई
हवाओं के जो रुख़ बदलते रहे
लिपट के चराग़ों से वो सो गये
जो फूलों पे करवट बदलते रहे
बशीर बद्र
जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे
हज़ारों तरफ़ से निशाने लगे
हुई शाम यादों के इक गाँव में
परिंदे उदासी के आने लगे
घड़ी दो घड़ी मुझको पलकों पे रख
यहाँ आते आते ज़माने लगे
कभी बस्तियाँ दिल की यूँ भी बसीं
दुकानें खुलीं, कारख़ाने लगे
वहीं ज़र्द पत्तों का कालीन है
गुलों के जहाँ शामियाने लगे
पढाई लिखाई का मौसम कहाँ
किताबों में ख़त आने-जाने लगे
बशीर बद्र
न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की
उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की
सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की
मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का
बरसती हुई रात बरसात की
आपकी तर’ही ग़ज़लों का इंतज़ार रहेगा
ख्याल
Sunday, August 2, 2009
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-अंतिम किश्त
अंतिम दो ग़ज़लें हाज़िर हैं.
पूर्णिमा वर्मन
जोर हवाओं का कश्ती को जब वापस ले आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
कितने हैं जो काट सकें तूफ़ानों को पतवारों से
तेज़ हवा में आगे बढ़ना सबसे कब हो पाता है
सागर गहरा नाव पुरानी मन में जागे डर रह रह
एक भरोसा ऊपरवाले का ही पार लगाता है
बिजली, बादल, आँधी ,पानी, ओलों या बौछारों में
हिम्मत करके चलने वाला आखिर मंज़िल पाता है
दुनिया कठिन सफर है यारों जिसकी राहें पथरीली
उसकी रहमत संग रहे तो हर सपना फल जाता है
सतपाल ख़याल
शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे तारों से ग़ज़लें बुन कर लाता है
जाने क्या मजबूरी है जो अपना गांव छॊड़ ग़रीब
शहर किनारे झोंपड़-पट्टी मे आकर बस जाता है
देख तो कैसे आरी से ये काट रहा है हीरे को
देख तेरा दीवाना कैसे-कैसे वक्त बिताता है
तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आंचल मे सो जाता है
रात के काले कैनवस पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
दिन चढ़ते ही कतरा-कतरा शबनम सा उड़ जाता है
चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है
कैसे झूठ को सच करना है कितना सच कब कहना है
आप ख़याल जो सीख न पाए वो सब उसको आता है
Tuesday, July 28, 2009
सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है-तीसरी किश्त
भूपेन्द्र कुमार जी के इस खूबसूरत शे’र के साथ इस किश्त की शुरूआत करते हैं..
इक भाषा को बाँट दिया है लिपियों की शमशीरों ने
हिन्दी-उर्दू का वरना तो पैदाइश से नाता है
हाज़िर हैं अगली चार तरही ग़ज़लें:
एक: एम.बी.शर्मा मधुर
बुलबुल के सुर बदले से सय्याद का मन घबराता है
सुर्ख स्याही बन जब खूं तारीख़ नई लिखवाता है
उलफ़त की राहों पे अक्सर देखे मैंने वो लम्हे
जब मैं दिल को समझाता हूँ दिल मुझ को समझाता है
दिलकश चीज़ें तोडेंगी दिल कौन यहां नावाकिफ़ है
फिर भी क्या मासूम लगें दिल धोखा खा ही जाता है
मेहनत के हाथों ने दाने हिम्मत के तो बीज दिए
बाकी रहती रहमत उस की देखें कब बरसाता है
सीना तान के चलने वाले खंजर से कब खौफ़ज़दा
आंख झुका कर वो चलता जो मौत से आंख चुराता है
घर की तल्ख़ हकीकत जब जब पांओं की ज़ंजीर बने
सात समुन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है
दो: भूपेन्द्र कुमार
जेबें ख़ाली हों तो अपना पगला मन अकुलाता है
भरने गर लग जाएँ तो वह बोझ नहीं सह पाता है
इन्सानों की आँखों में भी दरिय़ा सी तुग़ियानी है
पानी लेकिन आँखों का अब कमतर होता जाता है
इक भाषा को बाँट दिया है लिपियों की शमशीरों ने
हिन्दी-उर्दू का वरना तो पैदाइश से नाता है
महलों में रहने वाला जब कहता है संतोषी बन
झुग्गी में रहने वाला तब मन ही मन मुस्काता है
टीवी चैनल बन जाएँ जब सच्चाई के व्यापारी
सच दिखलाने में आईना मन ही मन शरमाता है
बारिश के पानी में देखूँ, जब भी काग़ज़ की कश्ती
मुझको अपना बीता बचपन बरबस याद आ जाता है
इस जीवन में केवल उसका सपना पूरा होता है
चट्टानें बन कर पल-पल जो लहरों से टकराता है
तूफ़ानों से डर कर जो भी साहिल पर रहता उसका
सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है
तीन: गौतम राजरिशी
शाम ढ़ले जब साजन मेरा बन-ठन कर इतराता है
चाँद न जाने क्यूं बदली में छुप-छुप कर शर्माता है
रोटी की खातिर जब इंसां दर-दर ठोकर खाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
देखा करता है वो हमको यूं तो छुप-छुप के अक्सर
राहों में मिलता है जब भी फिर क्यूं आँख चुराता है
तैर के दरिया पार करे ये उसके बस की बात नहीं
लहरों की गर्जन सुन कर जो साहिल पर थर्राता है
रस्ते में आते-जाते वो आँखें भर देखे जब भी
ख्वाहिश की धीमी आँचों को और जरा सुलगाता है
उसको यारों की गिनती में कैसे रखना मुमकिन हो
काम निकल जाने पर जो फिर मिलने से कतराता है
सूरज गुस्से में आकर जब नींद उड़ाये धरती की
बारिश की थपकी पर मौसम लोरी एक सुनाता है
चार: कवि कुलवंत सिंह
मेरा दिल आवारा पागल नगमें प्यार के गाता है
ठोकर कितनी ही खाई पर बाज नही यह आता है
मतलब की है सारी दुनिया कौन किसे पहचाने रे
कौन करे अब किस पे भरोसा, हर कोई भरमाता है
खून के रिश्तों पर भी देखो छाई पैसे की माया
देख के अपनो की खुशियों को हर चेहरा मुरझाता है
कहते हैं अब सारी दुनिया सिमटी मुट्ठी में लेकिन
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
आँख में मेरी आते आंसू जब भी करता याद उसे
दूर नही वह मुझसे लेकिन पास नही आ पाता है
Saturday, July 25, 2009
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-दूसरी किश्त
पेश है अगली चार ग़ज़लें:
एक : शहादत अली निज़ामी
गै़र की आँखों का आसूं भी नींद उड़ा कर जाता है
दर्द ज़माने भर का मेरे दिल में ही क्यों आता है
सुनते-सुनते बरसों बीते कोई मुझको बतलाए
दर्दे-जुदाई सहने वाला पागल क्यों हो जाता है
गांव के कच्चे-पक्के रस्ते मुझको याद आते हैं
डाली पर जब कोई परिंदा मीठे बोल सुनाता है
बेताबी बेचैनी दिल की दर्दो अलम और बर्बादी
मेरा हमदम मेरी खातिर ये सौगातें लाता है
रिश्तों की जज़ीर कहां उड़ने देती है पंछी को
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
सुनते हैं ये बात निज़ामी का है सब से याराना
नग़मे जो हर रोज वफ़ा के अपनी लय मे गाता है
दो : दर्द देहलवी
रोने वाले के दिल में कब कोई ग़म रह पाता है
बारिश में तो सारा कूड़ा-कर्कट ही बह जाता है
मौतों का शैदाई होकर मरने से घबराता है
ये ही तो इक रस्ता है जो उसके घर तक जाता है
होने को तो हो जाता है लफ़्ज़ों में कुछ अक्स अयाँ
लेकिन उसका हुस्न मुक्कमल शे’र मे कब ढल पाता है
बस्ती-बस्ती, सहरा -सहरा पानी जो बरसाता है
इन्सानों को करबो-बला के मंज़र भी दिखलाता है
सोना लगने लगती है जब देश की मिट्टी आँखों को
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
दर्द अदब से शे’र भी सुनना सीख न पाया है अब तक
अहले-सुखन की महफ़िल में तू शाइर भी कहलाता है
तीन : विरेन्द्र क़मर बदर पुरी
मां की बीमारी का मंज़र सामने जब भी आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
मुट्ठी बांध के आने वाला हाथ पसारे जाता है
बतला अम्मी वो बनजारा आखिर ये क्यों गाता है
बस इक सांस का झगड़ा है सब, आए, आए ,न आए
नादां है इन्सान खनकते सिक्कों पर इतराता है
कितनी सच्ची कितनी झूटी है ये बात खु़दा जाने
सुनते तो हम भी आए हैं अच्छा वक्त भी आता है
छोड़ कमर यह दानिशवर तो उंची-ऊंची हांके हैं
सीधी सच्ची बात प्यार की क्यों इनको समझाता है
चार : देवी नांगरानी
हरियाली के मौसम में जब दौरे-खिजां आ जाता है
शाख पे बैठा पंछी उसके साए से घबराता है
कोई वो गद्दार ही होगा शातिर बनके खेले जो
परदे के पीछे कठपुतली को यूं नाच नचाता है
नींव का पत्थर हर इक युग में सीने पर आघात सहे
देख ये मंज़र बेदर्दी का आज वहीं शर्माता है
साहिल-साहिल, रेती- रेती , जन्मों से प्यासी-प्यासी
प्यास बुझाने का फन " देवी" बादल को क्या आता है
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आज हम ग़ज़ल की बहरों को लेकर चर्चा आरम्भ कर रहे हैं | आपके प्रश्नों का स्वागत है | आठ बेसिक अरकान: फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2) मु-त-फ़ा-इ-लुन(...