Friday, September 24, 2021
Covid Memorial in America in 2021
कौन है वो जिसका ये दृश्य देखकर दिल न पसीज़ जाए | कोविड से मरने वाले एक-एक नाम को कितनी संवेदना से सहेजा है अमेरिका ने | हर एक शख्स के नाम का एक सफेद छोटा सा झंडा | एक संवेदनशील राष्ट्र को ऐसा ही होना चाहिए | हैं न मानवता की दिल को छु लेने वाली मिसाल ,दिल कहता है न कि सलाम है ऐसे राष्ट्र को ,ऐसी मनवता को |
लेकिन ये सब देखते हुए मुझे बहुत कुछ याद आया ,मुझे याद आया सरकार का ये कहना की आक्सीजन की कमी की वजह से किसी की मौत नहीं हुई ,मुझे याद सरकार का मृत परिवारों को मुआवज़े से इनकार करना | याद आया मुझे कविड के समय भेड़ों जैसे लोगों का सैलाब और हमारे नेताओं को इस हजूम को देखकर मुस्कुरान भी याद है मुझे ,याद है मुझे सिलेंडर की दरकार करते लोग ,नदियों में तैरती लाशें |
क्या कहें ? संवेदनशील होने के लिए कोई मूल्य नहीं चुकाना पड़ता ,मानवता कोई मंहगी चीज़ नहीं है ,पूछो आज अपने आप से कितने संवेदनशील हैं हम ? दुनिया हमें देख रही है ,उसे हमारे इश्तिहार भरमा नहीं सकते | यहाँ के गरीब -गुरबा वर्ग से अगर आप उसका हाल ही पूछ लो कि कैसे हो , तो वो खुश हो जाता है | लोगों को रोटी के साथ सम्मान भी मिलना चाहिए |
कोविड मेमोरियल की ये तस्वीरें हमें प्रेरित करती हैं की हम सीखें कि संवेदना क्या है ? मानवता क्या है ???
Wednesday, September 22, 2021
कहानी : सतपाल ख़याल
एक कप चाय : सतपाल
ख़याल
“उम्र अस्सी की हो
गई | दस साल पहले पत्नी छोड़ गई ,बेटी विदेश में ब्याही हुई है | बेटा इसी शहर में
है लेकिन किसी कारणवश साथ नहीं रहता ,खैर
!”
इतना कहकर गुप्ता जी
ने ठंडी आह भरी और मुझे पूछा कि चाय पीओगे
?
मैंने “हाँ” में सर हिला दिया |
चाय बनाते हुए
गुप्ता जी ने मुझे कहा कि एक कप चाय मुझे बनानी नहीं आती और बहुत मुश्किल भी है
,एक कप चाय बनाना | एक कप चाय बनाना अगर आदमी सीख ले तो उसे खुश रहने के लिए किसी
की ज़रूरत नहीं पड़ेगी |
गुप्ता जी ने चाय
मेज़ पे रख दी और मैं भी उनके साथ चाय पीने लगा |
मैंने उनसे पूछा कि
आप इस उम्र में इतने बड़े मकान में अकेले रहते हो और बीमार भी हैं तो ..
“बेटा , ज़्यादा से
ज्यादा क्या होगा ,मर जाउंगा ,बस | इससे बुरा और क्या हो सकता है, अब मुझे मौत का
डर नहीं है | लेकिन ज़िन्दगी को लेकर कुछ नाराज़गियां तो हैं |”
मैंने पूछा “क्या
नाराजगी है”?
“यही कि एक कप
चाय कैसी बनानी है, ये न सीख पाया” गुप्ता
जी थोड़ा मुस्कुरा कर चुटकीले अंदाज़ में बोले |
“अंकल , अफ़सोस होता
है क्या कि आप उम्र भर जिस परिवार के लिए कमाया उनमें से कोई भी साथ में नहीं है”
“बेटा , ये न्यू
नार्मल है | ऐसा होता ही है | तुम भी अभी से एक कप चाय बनान सीख लो”
मैं चाय ख़त्म करके
उठा और गुप्ता जी से कहा कि अगर कोई ज़रूरत हो तो मुझे बताइयेगा |
गुप्ता जी ने कहा – “नहीं,
मेरा बेटा है न | पास में ही तो है |”
मैंने सोचा बाप ,बाप
ही होता है ,बेटा चाहे कैसा भी हो ,उससे नाराज़ होते हुए भी नाराज़गी ज़ाहिर नहीं
करता |
मैं बापस घर आ गया
और रात भर सोचता रहा कि हासिल क्या है इस ज़िन्दगी का | जो आदमी सारी उम्र परिवार
के लिए मरता है , अंत में परिवार उसे छोड़ देता है और क्या ये बाकई न्यू नार्मल है
| मृत्यू से बड़ा दुःख तो ज़िंदगी है | मृत्यु तो वरदान है जो इस अभीशिप्त जीवन के दुःख से
मुक्त कर देती है | ये सोचते- सोचते सुबह हो गई |
मैं उठकर दो कप चाय बनाकर लाया और पत्नी से पूछा कि
पीओगी क्या ?
पत्नी बोली कि आफिस
के लिए लेट हो जाऊँगी तुम अकेले ही पी लो | मैं मन ही मन हंसा और गुप्ता जी का एक
कप चाय पे दिया ज्ञान मुझे बरबस याद आ गया |
मैंने चाय नहीं पी ,
दोनों चाय के कप मेज़ पे पड़े मानो मुझ पर तंज़ कर
रहे हों और मैं उन्हें इग्नोर करके
तैयार होकर आफिस को चल दिया | गाड़ी में बैठा तो देखा की शर्ट का एक बटन टूटा हुआ
था , मैंने मुस्कुरा कर आस्तीन को फोल्ड कर लिया और ख़ुद को मोटीवेट करने के लिए
गाड़ी में रिकार्ड मोटीवेशनल स्पीच सुनने लगा | स्पीकर यही कह रहा था कि बस चलते
रहो ,रुकना मत ,रुक गए तो खत्म हो जाओगे ,किसी तालाब की तरह सड़ने लगोगे ,बहते रहने
में ही गति है | मैं आफिस में पहुंच कर एक कनीज़ की तरह अपने बादशाह सलामत बॉस को
गुड मार्निंग कह कर अपनी कुर्सी पर बैठ गया |
अचानक एक कालेज के
मित्र का फोन आया कि तू फलां चाय की दुकान
पे लंच टाइम में आ जाना | आज “एक बटा दो “ चाय का आनन्द लेते हैं |
कालेज के जमाने में हम लोग ऐसे ही करते थे| दो दोस्त हों तो एक बटा दो ,तीन हों तो
एक बटा तीन ,एक बटा चार की भी नौबत आ जाती
थी |
और अब दो कप चाय मेज़
पे पड़ी रह जाती है |
खैर ! इस चाय की फलासफी
ने मन को उदास कर दिया |
शाम को घर पहुंचते
हीपता चला कि गुप्ता अंकल की डेथ हो गई | मैं दुखी तो हुआ लेकिन पता नहीं क्यों मन
का एक कोना तृप्ती से भर गया कि एकांत के चंगुल से एक आदमी को निज़ात मिल गई |
“क्या ये सही है कि
हमें खुश रहने के लिए किसी की ज़रूरत नहीं पडती ? “ मैंने खुद से ही पूछा और खुद को
ही जवाब दिया –
“ कोई सदियों में एक
बुद्ध पैदा होता होगा जिसे अकेलेपन में खुशी मिलती होगी | हम लोग जो बेल –बूटों की तरह पैदा होते हैं ,हमें सहारे की ज़रूरत होती
है | हम अकेले में खुश नहीं रह सकते|”
गुप्ता जी एक कप चाय
बनाना तो नहीं सीख पाए लेकिन जीवन का
अंतिम पहर उन्होंने एक कप चाय के सहारे ही काटा |
Tuesday, September 21, 2021
हिंदी के पुरोधा पंडित -अनिल जन विजय
आदरणीय अनिल जन विजय जी ने न केवल कविता कोश के माध्यम से हिंदी की सेवा की बल्कि रूस में भी हिंदी का प्रचार –प्रसार कर रहे हैं | मैं सोच रहा था कि मेरे ब्लॉग पर बहुत सारे विज़िटर रूस से कैसे आते हैं ,तो सहज ही मन में आया की ये अनिल जन विजय जी की बदौलत ही हैं | आज की ग़ज़ल के लगभग आधे पाठक रशिया से हैं ये हैरत की बात भी है और खुशी की भी और एक बात की ग़ज़ल को रशिया में आप पढ़ा रहे हैं |
जन्म
: 28 जुलाई 1957
जन्म
स्थान :बरेली, उत्तर प्रदेश, भारत
प्रमुख कृतियाँ
कविता
नहीं है यह (1982),
माँ, बापू कब आएंगे (1990),
राम जी भला करें (2004)
उनका कविता कोष का लिंक- www.kavitakosh.org/anil
इनका परिचय इनकी ज़बानी-
मैं अनिल जनविजय हूँ । पिछले तीस साल से मास्को में रहता हूँ । रूसी छात्रों को ’हिन्दी साहित्य’और ’अनुवाद’ पढ़ाता हूँ । मास्को रेडियो का हिन्दी डेस्क देखता हूँ । इसके साथ-साथ कविता कोश और गद्य कोश के सम्पादन का भार भी सम्भालता हूँ ।हिन्दी और हिन्दी साहित्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित हूँ ।कविता लिखने-पढ़ने में मेरी रुचि है ।कविताओं का अनुवाद करना भी मुझे पसन्द है ।बहुत से रूसी, फ़िलिस्तीनी, उक्राइनी, लातवियाई, लिथुआनियाई, उज़्बेकी, अरमेनियाई कवियों की और पाब्लो नेरुदा, नाज़िम हिक़मत, लोर्का आदि कवियों की कविताओं का रूसी और अँग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद किया है ।रूसी कविता से भी वैसे ही अच्छी तरह परिचित हूँ जैसे हिन्दी कविता से ।
अनिल जन विजय द्वारा हिन्दी में अनुवाद की गई ये
रूसी कविता आप सब के लिए –
मूल
रचना -ओसिप मंदेलश्ताम
(यह
कविता स्तालिन के बारे में है)
पहाड़ों
में निष्क्रिय है देव, हालाँकि
है पर्वत का वासी
शांत, सुखी उन लोगों को वह, लगता है सच्चा-साथी
कंठहार-सी
टप-टप टपके, उसकी गरदन से चरबी
ज्वार-भाटे-से
वह ले खर्राटें,
काया
भारी है ज्यूँ हाथी
बचपन
में उसे अति प्रिय थे, नीलकंठी
सारंग-मयूर
भरतदेश
का इन्द्रधनु पसन्द था औ' लड्डू मोतीचूर
कुल्हिया
भर-भर अरुण-गुलाबी पीता था वह दूध
लाह-कीटों का रुधिर ललामी,
मिला
उसे भरपूर
पर
अस्थिपंजर अब ढीला उसका, कई
गाँठों का जोड़
घुटने, हाथ, कंधे सब नकली, आदम का ओढे़ खोल
सोचे
वह अपने हाड़ों से अब और महसूस करे कपाल
बस
याद करे वे दिन पुराने, जब
वह लगता था वेताल
कविता कोष से साभार
Monday, September 20, 2021
तरही मुशायरे की चौथी ग़ज़ल : निर्मला कपिला
ये
हिमाक़त करूं सवाल कहां
तल्ख़ बोलूं मेरी मज़ाल कहां
अब
नसीमे सहर की उम्र ढली
धड़कनों
में रही वो ताल कहां
फ़िक्र बच्चों की सूखी रोटी की
दे
सके सब्जी और दाल कहां
बीता
बचपन गयी जवानी भी
मस्त
हिरणी सी अब वो चाल कहां
एक
अदना किसान हूँ यारो
मैं
बताओ कि मालो माल कहां
मतलबी
हैं यहां सभी रिश्ते
वक़्ते
मुश्किल में बनते ढाल कहां
ठूंठ
बरगद खड़ा हुया तन्हा
होती
चौपाल पे रसाल कहां
दे
गयी प्यार में दगा 'निर्मल'
बेवफा
को मगर मलाल कहां
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