Wednesday, August 10, 2011

अनवारे इस्लाम


1947 में जन्में अनवारे इस्लाम द्विमासिक मासिक पत्रिका "सुख़नवर" का संपादन करते हैं। इन्होंने बाल साहित्य में भी अपना बहुत योगदान दिया है । साथ ही कविता, गीत , कहानी भी लिखी है। सी.बी.एस.ई पाठयक्रम में भी इनकी रचनाएँ शामिल की गईं हैं। आप म.प्र. साहित्य आकादमी और राष्ट्रीय भाषा समिती द्वारा सम्मान हासिल कर चुके हैं। लेकिन ग़ज़ल को केन्द्रीय विधा मानते हैं। इनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं, जिन्हें पढ़कर ये समझा जा सकता है कि गज़लीयत क्या होती है। बहुत ही आदर के साथ ये ग़ज़ले मैं शाया कर रहा हूँ-


ख़यालों के समंदर में उतर जाता हूँ
मैं तेरी ज़ुल्फ़ की मानिंद बिखर जाता हूँ

वक़्त की इतनी ख़राशें हैं मेरे चेहरे पर
आईना सामने आ जाए तो डर जाता हूँ

लेके उम्मीद निकलता हूँ मैं क्या- क्या घर से
रंग उड़ जाता है जब शाम को घर जाता हूँ

कितने बेनूर उजाले हैं मेरे चारों ओर
रोशनी चीखती मिलती है जिधर जाता हूँ

टूटने की मेरे आवाज़ नहीं हो पाती
अपने एहसास में ख़ामोश बिखर जाता हूँ

पार जाना है तो तूफ़ान से डरना कैसा
कश्तियाँ तोड़ के दरिया में उतर जाता हूँ


पने जज़्बात वो ऐसे भी बता देते हैं
जब कोई हाथ मिलाता है दबा देते हैं

ख़त तो लिखते हैं अज़ीज़ों को बहुत खुश होकर
और बातों में कुछ आँसू भी मिला देते हैं

बैठ जाते हैं जो शाखों पे परिंदे आकर
पेड़ को फूलने -फलने की दुआ देते हैं

तुमने देखी ही नहीं उनकी करिश्मा साज़ी
नाव काग़ज़ की जो पानी पे चला देते हैं

रास्ते मैं तो बनाता हूँ कि पहुँचूं उन तक
और वो राह को दीवार बना देते हैं

देखते हैं जो दरख्तों पे फलों का आना
हम भी अपना सरे -तस्लीम झुका देते हैं

दोनों ग़ज़लें बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल में कहीं गईं हैं-
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22

शायर का पता-
ईमेल :sukhanwar12@gmail.com
मोबाइल :09893663536



Tuesday, August 2, 2011

नवीन सी चतुर्वेदी









नवीन सी चतुर्वेदी की एक ग़ज़ल

तरक्क़ी किस तरह आये भला उस मुल्क़ में प्यारे
परिश्रम को जहाँ उस की सही क़ीमत नहीं मिलती

ग़ज़ल

आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी
यूँ उजालों की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी

सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी

छीन कर कुर्सी अदालत में घसीटा है फ़क़त
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी

जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी

सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें हुक़ूमत कर रहा है आदमी

मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं
आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी

Saturday, June 18, 2011

अंजुम लुधियानवी की एक ग़ज़ल















अच्छी ग़ज़लें कहना खेल नहीं अंजुम
किरनें बुनकर चाँद बनाना पड़ता है

ग़ज़ल

तोड़ कड़ियाँ ज़मीर की अंजुम
और कुछ देर तू भी जी अंजुम

एक भी गाम चल न पायेगी
इन अँधेरों में रौशनी अंजुम

ज़िंदगी तेज़ धूप का दरिया
आदमी नाव मोम की अंजुम

जिस घटा पर थी आँख सहरा की
वो समंदर पे मर गई अंजुम

*क़ुलज़मे-खूं सुखा के दम लेगी
आग होती है आगही अंजुम

जिन पे सूरज की मेहरबानी हो
उन पे खिलती है चाँदनी अंजुम

सुबह का ख़्वाब उम्र भर देखा
और फिर नींद आ गई अंजुम

*क़ुलज़म-दरिया

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन

Tuesday, June 7, 2011

कँवल ज़िआई



















पर तो अता किये मगर परवाज़ छीन ली
अंदाज़ दे के खूबी-ए-अंदाज़ छीन ली
मुझको सिला मिला है मेरे किस गुनाह का
अलफ़ाज़ तो दिये मगर आवाज़ छीन ली


1930 में जन्मे कँवल ज़िआई साहब बहुत अच्छे शायर हैं। जिन्होंने बहुत से मुशायरों में शिरकत की और आप सिने स्टार राजेन्द्र कुमार के सहपाठी भी रहे हैं। मै इनके बारे में क्या कहूँ, छोटा मुँह और बड़ी बात हो जाएगी। कुछ दिन पहले इनका ग़ज़ल संग्रह "प्यासे जाम" इनके बेटे यशवंत दत्त्ता जॊ की बदौलत पढ़ने को मिला। आप हमारे बजुर्ग शायर हैं, हमारे रहनुमा हैं। भगवान इनको लम्बी उम्र और सेहत बख़्शे । राजेन्द्र कुमार जी ने कभी मजाक में कहा था कि आप शक्ल से जमींदार लगते हैं तो आप ने फ़रमाया था-

शक्ल मेरी देखना चाहें तो हाज़िर है, मगर
मेरे दिल को मेरे शेरो में उतर कर देखिये

कुछ दिन पहले २७ मई को इनकी शादी की सालगिरह थी। सो एक बार फिर दिली मुबारक़बाद। आप आर्मी से रिटायर हैं और अभी देहरादून में हैं।बहुत शोहरत कमाई है आपने और कई महफ़िलों की जान रहे हैं आप। ज़िंदगी के प्रति काफ़ी पैनी नज़र रखते हैं-

बात करनी है मुझे इक वक़्त से
बात छोटी है मगर छोटी नहीं
ज़िन्दगी को और भी कुछ चाहिये
ज़िन्दगी दो वक़्त की रोटी नहीं

उम्र के इस पड़ाव पर ख़ुद को आइने में देखकर कुछ यूँ कहते हैं-

जानी पहचानी सी सूरत जाने पहचाने से नक्श
वो यक़ीनन मैं नहीं लेकिन ये मुझ सा कौन है
एक ही उलझन में सारी रात मैंने काट दी
जिसको आईने में देखा था वो बूढ़ा कौन है

इनकी ग़ज़ल हाज़िर है-

कोई भी मसअला मरने का मारने का नहीं
सवाल हक़ का है दामन पसारने का नहीं

मैं एक पल का ही मेहमां हूँ लौट जाऊंगा
मेरा ख़याल यहाँ शब गुजारने का नहीं

उन्हें भी सादगी मेरी पसंद आती है
मुझे भी शौक नया रूप धारने का नहीं

हदूद-ए-शहर में अब जंगबाज़ आ पहुंचे
ये वक़्त रेशमी जुल्फें सवांरने का नहीं

Sunday, May 22, 2011

ग़ज़ल- सुरेन्द्र चतुर्वेदी











ग़ज़ल- सुरेन्द्र चतुर्वेदी

दूर तक ख़ामोशियों के संग बहा जाए कभी
बैठ कर तन्हाई में ख़ुद को सुना जाए कभी

देर तक रोते हुए अक्सर मुझे आया ख़याल
आईने के सामने ख़ुद पर हँसा जाए कभी

जिस्म के पिंजरे का पंछी सोचता रहता है ये
आसमां में पंख फैलाकर उड़ा जाए कभी

उम्र भर के इस सफ़र में बारहा चाहा तो था
मंजिले-मक़सूद मेरे पास आ जाए कभी

मुझमें ग़ालिब की तरह शायर कोई कहने लगा
अनकहा जो रह गया वो भी कहा जाए कभी

ख़ुद की ख़ुशबू में सिमट कर उम्र सारी काट ली
कुछ दिनों तो दूर ख़ुद से भी रहा जाए कभी

हँस पड़ीं साँसे उन्हें जब रोककर मैनें कहा
ज़िंदगी को आखिरी इक ख़त लिखा जाए कभी

Tuesday, April 12, 2011

पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" की ग़ज़ल










पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" की एक खूबसूरत ग़ज़ल आपकी नज़्र कर रहा हूँ । जनाब बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं और ग़ज़ल के मिज़ाज से वाक़िफ़ हैं। ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-

सूरज उगा तो फूल-सा महका है कौन-कौन
अब देखना यही है कि जागा है कौन-कौन

बाहर से अपने रूप को पहचानते है सब
भीतर से अपने आप को जाना है कौन-कौन

लेने के साँस यों तो गुनेहगार हैं सभी
यह देखिए कि शह्र में ज़िन्दा है कौन-कौन

अपना वजूद यों तो समेटे हुए हैं हम
देखो इन आँधियों में बिखरता है कौन-कौन

दावे तो सब के सुन लिए "आज़र" मगर ये देख
तारे गगन से तोड़ के लाता है कौन-कौन

मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल

Saturday, March 19, 2011

प्रफुल्ल कुमार परवेज़







ग़ज़ल

वो बेहिसाब है तन्हा तमाम लोगों में
जो आदमी है सरापा तमाम लोगों में

तू झूठ, सच की तरह बोलने में माहिर है
अज़ीम है तेरा रुतबा तमाम लोगों में

ख़ुदी की बात लबों पर ज़रा-सी क्या आई
मैं घिर गया हूँ अकेला तमाम लोगों में

मिलो तपाक से नीयत करे करे न करे
कमाल है ये सलीका तमाम लोगों में

ये क्या मुकामे-जहाँ है कि अब गरज़ के सिवा
बचा नहीं कोई रिश्ता तमाम लोगों में

इक आरज़ू थी जो शायद कभी न हो पूरी
हबीब-सा कोई मिलता तमाम लोगों में

म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
बहरे-मजतस


{ थाईलैड से यह ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ , दूर हूँ , लेकिन हिंदी लिखकर ऐसा लगा मानो घर पर बैठा हूँ }

Saturday, February 19, 2011

नज़ीर बनारसी









(1909-1996)


हमने जो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर, गंगा तेरे पानी से वजू कर करके ..नज़ीर बनारसी

ग़ज़ल

इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
मुफ़लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ

जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ

कंदील समझ कर कोई सर काट न ले जाए
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ

सब एक नज़र फेंक के बढ़ जाते हैं आगे
मैं वक़्त के शोकेस में चुपचाप खड़ा हूँ

वो आईना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ

दुनिया का कोई हादसा ख़ाली नहीं मुझसे
मैं ख़ाक हूँ, मैं आग हूँ, पानी हूँ, हवा हूँ

मिल जाऊँगा दरिया में तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इसलिए क़तरा हूँ ,मैं दरिया से जुदा हूँ

हर दौर ने बख़्शी मुझे मेराजे मौहब्बत
नेज़े पे चढ़ा हूँ कभी सूली पे चढ़ा हूँ

दुनिया से निराली है 'नज़ीर' अपनी कहानी
अंगारों से बच निकला हूँ फूलों से जला हूँ

मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ऊलुन
22 1 1 221 1221 122
(हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल)

Friday, December 31, 2010

वक़्त ने फिर पन्ना पलटा है















न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है

गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है..वसीम बरेलवी

इस नये साल के मौक़े पर द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो किसी दुआ से कम नहीं है और आप सब को नये साल की शुभकामनाएँ।

द्विजेन्द्र द्विज

ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में

सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में

ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में

इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में

है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में

बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में

राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में

वक़्त! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में

ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में

हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में

अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में

काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में

देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में

कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.

Monday, December 6, 2010

सत्यप्रकाश शर्मा की एक ग़ज़ल

सत्यप्रकाश शर्मा

तस्वीर का रुख एक नहीं दूसरा भी है
खैरात जो देता है वही लूटता भी है

ईमान को अब लेके किधर जाइयेगा आप
बेकार है ये चीज कोई पूछता भी है?

बाज़ार चले आये वफ़ा भी, ख़ुलूस भी
अब घर में बचा क्या है कोई सोचता भी है

वैसे तो ज़माने के बहुत तीर खाये हैं
पर इनमें कोई तीर है जो फूल सा भी है

इस दिल ने भी फ़ितरत किसी बच्चे सी पाई है
पहले जिसे खो दे उसे फिर ढूँढता भी है

हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल मफ़ाईल
22 1 1221 1221 122(1)


शायर का पता-
२५४ नवशील धाम
कल्यान पुर-बिठुर मार्ग, कानपुर-१७
मोबाइल-07607435335

Friday, December 3, 2010

सोच के दीप जला कर देखो- अंतिम क़िस्त

मैनें लफ़्ज़ों को बरतने में लहू थूक दिया
आप तो सिर्फ़ ये देखेंगे ग़ज़ल कैसी है

मुनव्वर साहब का ये शे’र बेमिसाल है और अच्छी ग़ज़ल कहने में होने वाली मश्क की तरफ इशारा करता है।लफ़्ज़ों को बरतने का सलीका आना बहुत ज़रूरी है और ये उस्ताद की मार और निरंतर अभ्यास से ही आ सकता है।ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ का हज़ारों सालों से ज़िंदा रहने का यही कारण है शायर शे’र कहने के लिए बहुत मश्क करता है और इस्लाह शे’र को निखार देती है। लफ़्ज़ों की थोड़ी सी फेर-बदल से मायने ही बदल जाते हैं।

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की
सी है

दूसरे मिसरे में सी के इस्तेमाल ने शे’र की नाज़ुकी को दूना कर दिया है। इसी हुनर की तरफ़ मुनव्वर साहब ने इशारा किया है। खैर!मुशायरे की अंतिम क़िस्त में मुझे अपनी ग़ज़ल आपके सामने रखते हुए एक डर सा लग रहा है। जब आप ग़ज़ल की बारीकियों की बात करते हैं तो अपना कलाम रखते वक़्त डर लगेगा ही। ये बहर सचमुच कठिन थी और अब पता चला की मुनीर नियाज़ी ने पाँच ही शे’र क्यों कहे। कई दिन इस ग़ज़ल पर द्विज जी से चर्चा होती रही। और ग़ज़ल आपके सामने है । Only Result counts , not long hours of working..ये भी सच है।











सतपाल ख़याल

उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो

क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो

क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो

हम क्या थे? क्या हैं? क्या होंगे?
थोड़ी खाक़ उठा कर देखो

दर्द के दरिया थम से गए हैं
ज़ख़्म नए फिर खा कर देखो

मुशायरे में हिस्सा लेने वाले सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया और कुछ शायरों को तकनीकी खामियों के चलते हम शामिल नहीं कर सके, जिसका हमें खेद है।

Monday, November 29, 2010

सोच के दीप जला कर देखो

इस बहर में शे’र कहना सचमुच पाँव में पत्थर बाँध कर पहाड़ पर चढ़ने जैसा है। क्योंकि इसमें तुकबंदी की तो बहुत गुंज़ाइश थी लेकिन शे’र कहना बहुत कठिन। इसी वज़ह से तीन-चार शायरों को हम इसमें शामिल नहीं कर सके । दानिश भारती जी(मुफ़लिस) ने कुछ ग़ल्तियों की तरफ़ इशारा किया था, उनको हमने सुधारने की कोशिश की है और आप सबसे गुज़ारिश है कि कहीं कुछ ग़ल्ति नज़र आए तो ज़रूर बताएँ। हमारा मक़सद यह भी रहता है कि नये प्रयासों को भी आपके सामने लेकर आएँ और अनुभवी शायरों को भी। भावनाएँ तो हर शायर की एक जैसी होती हैं लेकिन उनको व्यक्त करने की शैली जुदा होती है। और यही अंदाज़े-बयां एक शायर को दूसरे से जुदा करता है और यही महत्वपूर्ण है।

द्विज जी का ये शे’र

यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो

इसी अंदाज़े-बयां का एक उदाहरण है। हर शायर ने तारीकी दूर करने के लिए सोच के दीप जलाए हैं लेकिन बस्ती कितनी रौशन है उसको देखने के लिए भी सोच के दीप जलाए जा सकते हैं । बात को जुदा तरीके से रखने का ये हुनर ही शायरी है जिसकी मिसाल है ये एक और शे’र -

जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो

अगली और अंतिम क़िस्त में मैं अपना प्रयास आपके सामने रखूंगा।लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए द्विज जी की ग़ज़ल-











द्विजेंद्र द्विज

चोट नई फिर खा कर देखो
शहरे-वफ़ा में आ कर देखो

अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो

आए हो मुझको समझाने
ख़ुद को भी समझा कर देखो

सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो

जिनपे जुनूँ तारी है उनको
ज़ब्त का जाम पिलाकर देखो

जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो

लड़ जाते हो दुनिया से तुम
ख़ुद से आँख मिला कर देखो

यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो

सन्नाटे की इस बस्ती में
‘द्विज’, अशआर सुना कर देखो

Thursday, November 25, 2010

सोच के दीप जला कर देखो-आठवीं क़िस्त

पहले शायर : कमल नयन शर्मा । आप द्विज जी के भाई हैं और एयर-फ़ोर्स में हैं। इस मंच पर हम इनका स्वागत करते हैं।









कमल नयन शर्मा

दुख को मीत बना कर देखो
खुद को सँवरा पा कर देखो

मिलता है वो, मिल जाएगा
मन के अंदर जाकर देखो

कब भरते हैं पेट दिलासे
असली फ़स्लें पाकर देखो

भर देंगे वो तेरी झोली
उनकी धुन में गा कर देखो

कब लौटे है जाने वाले
फिर भी आस लगाकर देखो

मत भटको यूं द्वारे-द्वारे
सोच के दीप जला कर देखो

आप 'कमल' खुद खिल जाओगे
जल से बाहर आकर देखो

दूसरे शायर हैं जनाब कवि कुलवंत जी









कुलवंत सिंह

सोच के दीप जला कर देखो
खुशियां जग बिखरा कर देखो

सबको मीत बना कर देखो
प्रेम का पाठ पढ़ा कर देखो

खून बने अपना ही दुश्मन
हक़ अपना जतला कर देखो

मज़मा दो पल में लग जाता
कुछ सिक्के खनका कर देखो

सिलवट माथे दिख जायेंगी
शीशे को चमका कर देखो

जनता उलझी है सालों से
नेता को उलझा कर देखो

खुद में खोये यह बहरे हैं
जोर से ढ़ोल बजा कर देखो

और शाइरा निर्मला कपिला जी का स्वागत है आज की ग़ज़ल पर।









निर्मला कपिला

मन की मैल हटा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो

सुख में साथी सब बन जाते
दुख में साथ निभा कर देखो

राम खुदा का झगडा प्यारे
अब सडकों पर जा कर देखो

लडने से क्या हासिल होगा?
मिलजुल हाथ मिला कर देखो

औरों के घर रोज़ जलाते
अपना भी जलवा कर देखो

देता झोली भर कर सब को
द्वार ख़ुदा के जाकर देखो

बिन रोजी के जीना मुश्किल
रोटी दाल चला कर देखो

Monday, November 22, 2010

सोच के दीप जला कर देखो-सातवीं क़िस्त

रंजन के इस खूबसूरत शे’र-

कष्ट, सृजन की नींव बनेगा
सोच के दीप जला कर देखो


के साथ हाज़िर हैं तरही की अगली दो ग़ज़लें-

रंजन गोरखपुरी

नफ़रत बैर मिटा कर देखो
प्यार के फूल खिला कर देखो

गुंजाइश मुस्कान की है बस
बिगडी बात बना कर देखो

ग़ज़लें बेशक छलकेंगी फिर
बस तस्वीर उठा कर देखो

डोर जुडी हो अब भी शायद
वक्त की धूल उड़ा कर देखो

मुझसे सरहद अक्सर कहती
मसले चंद भुला कर देखो

राम को फिर वनवास मिला है
आज अयोध्या जा कर देखो

मिले बुलंदी बेशक साहेब
घर में वक्त बिता कर देखो

कष्ट, सृजन की नींव बनेगा
सोच के दीप जला कर देखो

अरसे बाद मिले हो "रंजन"
कोई शेर सुना कर देखो

डा.अजमल हुसैन खान माहक

हाथ से हाथ मिला कर देखो
सपने साथ सजा कर देखो

दुनिया तकती किसकी जानिब
"ओवामा" तुम आ कर देखो

हैं नादाँ जो दीवाने से
उनको भी समझा कर देखो

सब अँधियारा मिट जायेगा
सोच के दीप जला कर देखो

बात नही ये रुकने वाली
"माहक" आस लगा कर देखो।

Saturday, November 20, 2010

सोच के दीप जला कर देखो- छटी क़िस्त

इस ब्लागिंग के ज़रिये एक नया परिवार बन गया है-ग़ज़ल परिवार। जिनके मुखिया जैसे थे महावीर जी। उनका अचनाक चले जाना बहुत दुखद है। हम सब अब एक अनोखे से बंधन में बंध गए हैं। शब्दों और शे’रों का रिश्ता सा बन गया है आप सब से। है तो ये सब एक सपना सा ही लेकिन हक़ीकत से कम नहीं। खैर! ये तो रंग-मंच है। जब अपना क़िरदार ख़त्म हुआ तो परदे के पीछे चले जाना हैं। लेकिन खेल चलता रहता है , यही सब से बड़ी माया है। महावीर जी को आज की ग़ज़ल की तरफ से विनम्र श्रदाँजलि। तरही मुशायरे के क्रम को आगे बढ़ाते हैं।

मुशायरे के अगले शायर और शाइरा हिमाचल प्रदेश से हैं। मिसरा-ए-तरह" सोच के दीप जला कर देखो" पर इनकी ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए।











चंद्र रेखा ढडवाल

सूनी आँख सजा कर देखो
सपना एक जगा कर देखो

यह भी एक दुआ, पिंजरे से
पाखी एक उड़ा कर देखो

तपती रेत पे सहरा की तुम
दरिया एक बहा कर देखो

उसको भी हँसना आता है
मीठे बोल सुना कर देखो

वो भी जी का हाल कहेगा
अपना हाल सुना कर देखो

राह सिमट जाएगी पल में
बस इक पाँव बढ़ाकर देखो

अपना चाहा बहुत दिखाया
मेरा ख़्वाब दिखाकर देखो

धू-धू जलती इस बस्ती में
अपना आप बचाकर देखो

वक़्त बहुत धुँधला-धुँधला है
सोच के दीप जलाकर देखो

जान तुम्हारी के सौ सदक़े
ग़ैर की जान बचा कर देखो

जोग निभाना तो आसाँ है
रिश्ता एक निभा कर देखो










एम.बी.शर्मा मधुर

सोये ख़्वाब जगा कर देखो
दुनिया और बना कर देखो

हो जाएँगी सदियाँ रौशन
सोच के दीप जला कर देखो

रूठो यार से लेकिन पहले
मन की बात बता कर देखो

मिल जाएगा कोई तो अपना
सबसे हाथ मिलाकर देखो

शर्म-हया का नूर है अपना
यह तुम शम्अ बुझाकर देखो

सर टकराने वाले लाखों
तुम दीवार बनाकर देखो

सबका है महबूब तसव्वुर
पंख ‘मधुर’ ये लगाकर देखो

Thursday, November 18, 2010

श्रदाँजलि















(1933-2010)

हमारे बहुत ही प्रिय , आदरणीय तथा मार्गदर्शक श्री महावीर शर्मा जी अब हमारे बीच नहीं रहे । शायर और लेखक महावीर शर्मा जी से सारा ब्लाग जगत वाकिफ़ है। आज ही ये दुखद समाचार हमें मिला है। प्रमात्मा इस बिछड़ी हुई आत्मा को शांति दे। हम इस अज़ीम शायर को श्रदाँजलि देते हैं।

Monday, November 15, 2010

मुशायरे के अगले दो शायर

मिसार-ए-तरह" सोच के दीप जला कर देखो" पर अगली दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए ।

जोगेश्वर गर्ग

जागो और जगा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो

खूब हिचक होती है जिन पर
वो सब राज़ बता कर देखो

आग लगाने वाले लोगो
इक दिन आग बुझा कर देखो

बारिश चूती छत के नीचे
सारी रात बिता कर देखो

कोई नहीं जिनका उन सब को
सीने से चिपका कर देखो

बच्चों के नन्हे हाथों को
तारे चाँद थमा कर देखो

"जोगेश्वर" उनकी महफ़िल में
अपनी ग़ज़ल सुना कर देखो

कुमार ज़ाहिद

लरज़ी पलक उठा कर देखो
ताब पै आब चढ़ा कर देखो

गिर जाएंगी सब दीवारें
सर से बोझ गिरा कर देखो

दुनिया को फिर धोक़ा दे दो
हँसकर दर्द छुपा कर देखो

तुम पर्वत को राई कर दो
दम भर ज़ोर लगा कर देखो

बंजर में भी फूल खिलेंगे
कड़ी धूप में जा कर देखो

अँधियारे में सुबह छुपी है
सोच के दीप जला कर देखो

लिपट पड़ेगी झूम के तुमसे
कोई शाख़ हिला कर देखो

ख़ाली हाथ नहीं है कोई
बढ़कर हाथ मिला कर देखो

ज़िन्दा हर तस्वीर है ‘ज़ाहिद’
टूटे कांच हटा कर देखो

Saturday, November 13, 2010

चौथी क़िस्त - सोच के दीप जला कर देखो

इस चौथी क़िस्त में हम मिसरा-ए-तरह " सोच के दीप जला कर देखो" पर नवनीत शर्मा और तिलक राज कपूर की ग़ज़लें पेश कर रहे हैं। उम्मीद है कि ये ग़ज़लें आपको पसंद आऐंगी।










नवनीत शर्मा

खुद को शक्ल दिखा कर देखो
शख्स नया इक पा कर देखो

भरी रहेगी यूं ही दुनिया
आकर देखो, जाकर देखो

गा लेते हैं अच्छा सपने
दिल का साज बजा कर देखो

पीठ में सूरज की अंधियारा
उसके पीछे जा कर देखो

आ जाओगे खुद ही सुर में
अपना होना गा कर देखो

क्या तेरा , क्या मेरा प्यारे
ये मरघट में जाकर देखो

मिल जाएं तो उनसे कहना
मेरे घर भी आकर देखो

डूबा है जो ध्यान में कब से
उसके ध्यान में आकर देखो

दूजे के ज़ख्मों पर मरहम
ये राहत भी पा कर देखो

ज़ेहन में कितनी तारीकी है
सोच के दीप जला कर देखो

दूसरे शायर:










तिलक राज कपूर

चोट जिगर पर खाकर देखो
फिर दिल को समझा कर देखो

जाने क्या-क्या सीखोगे तुम
इक बच्चा बहला कर देखो

जिसकी कोई नहीं सुनता है
उसकी पीड़ा गा कर देखो।

कुछ देने का वादा है तो
बदरी जैसे छा कर देखो

जिसको ठुकराते आये हो
उसको भी अपना कर देखो

लड़ना है काली रातों से
सोच के दीप जला कर देखो

खून पसीने की, मेहनत की
रोटी इक दिन खाकर देखो

दर्द लहू का क्या होता है
अपना खून बहा कर देखो

चिंगारी की फि़त्रत है तो
घर में आग लगाकर देखो

अगर दबाने की इच्छा है
चाहत एक दबा कर देखो

‘राही’ नाज़ुक दिल है इसको
ऐसे मत इठला कर देखो

Thursday, November 11, 2010

मुशायरे की तीसरी क़िस्त

इस क़िस्त में आज की ग़ज़ल पर पहली बार शाइरा डॉ कविता'किरण'की ग़ज़ल पेश कर रहे हैं। मैं तहे-दिल से इनका इस मंच पर स्वागत करता हूँ। इनका एक शे’र मुलाहिज़ा कीजिए जो शाइरा के तेवर और कहन का एक खूबसूरत नमूना है-

कलम अपनी,जुबां अपनी, कहन अपनी ही रखती हूँ,
अंधेरों से नहीं डरती 'किरण' हूँ खुद चमकती हूँ,

इससे बेहतर और क्या परिचय हो सकता है। खैर ! लीजिए मिसरा-ए-तरह "सोच के दीप जला कर देखो " पर इनकी ये ग़ज़ल-














डॉ कविता'किरण'

चाहे आँख मिला कर देखो
चाहे आँख बचा कर देखो

लोग नहीं, रिश्ते रहते हैं
मेरे घर में आकर देखो

रोज़ देखते हो आईना
आज नकाब उठा कर देखो

समझ तुम्हारी रोशन होगी
सोच के दीप जला कर देखो

दर्द सुरीला हो जायेगा
दिल से इसको गा कर देखो

और अब पेश है देवी नांगरानी जी की ग़ज़ल । आप तो बहुत पहले से आज की ग़ज़ल से जुड़ी हुई हैं।













देवी नांगरानी

चोट खुशी में खा कर देखो
गम में जश्न मना कर देखो

बात जो करनी है पत्थर से
लब पे मौन सजा कर देखो

बचपन फिर से लौट आएगा
गीत खुशी के गा कर देखो

बिलख रहा है भूख से बच्चा
उसकी भूख मिटा कर देखो

जीवन भी इक जंग है देवी
हार में जीत मना कर देखो

इस बहर के बारे में कुछ चर्चा करना चाहता हूँ। ये बड़ी सीधी-सरल लगने वाली बहर भी बड़ी पेचीदा है। मसलन इस बहर में कुछ छूट है जो बड़े-बड़े शायरों ने ली भी है लेकिन कई शायर या अरूज़ी इसे वर्जित भी मानते हैं। हिंदी स्वभाव कि ये बहरें हमेशा चर्चा का विषय बनी रहती हैं। चार फ़ेलुन की ये बहर है तो मुतदारिक की मुज़ाहिफ़ शक्ल लेकिन ये किसी मात्रिक छंद से भी मेल खा सकती है सो ये बहस का मुद्दा बन जाता है। और ये देखिए जिस ग़ज़ल से मिसरा दिया उसमें देखिए-

किसी अकेली शाम की चुप में
गीत पुराने गा कर देखो

इस शे’र में मिसरा 12 से शुरू हुआ है।

जाग जाग कर उम्र कटी है
नींद के द्वार हिला कर देखो

और यहाँ पर 21 21 से शुरू हुआ। सो हम ये छूट ले सकते हैं लेकिन जो लय फ़ेलुन(22) से बनेगी वो यकी़नन बेहतर होगी। इसीलिए मैं सारे मिसरों और शब्दों के फ़ेलुन में होने की गुज़ारिश करता हूँ।

Monday, November 8, 2010

तरही मुशायरे के दूसरे शायर
















दानिश भारती जी को पहचाना क्या?..ये हैं अपने मुफ़लिस जी जिन्होंने अपना अदबी नाम बदल लिया है।

मुशायरे के दूसरे शायर हैं जनाब दानिश भारती। इनका फोटो अभी खाली रखा है , कल तक इनकी तस्वीर लगाऊँगा । इस शायर को आप सब भली-भाँति जानते हैं और इस राज़ पर से कल पर्दा उठेगा। अभी मुलाहिज़ा कीजिए दानिश भारती की मिसरा-ए - तरह " सोच के दीप जला कर देखो" पर ये ग़ज़ल-

दानिश भारती

सोये लफ़्ज़ जगा कर देखो
मन की बात बता कर देखो

इश्क़ में रस्म निभा कर देखो
हुस्न के नाज़ उठा कर देखो

दिल का चैन गँवा कर देखो
याद उसे भी आ कर देखो

मन में प्रीत बसा कर देखो
अपने ख़्वाब सजा कर देखो

महके, रिश्तों की ये बगिया
प्यार के फूल खिला कर देखो

मुश्किल कोई काम नहीं है
ख़ुद से शर्त लगा कर देखो

सच्चा सुख मिलता है इसमें
काम किसी के आ कर देखो

मुहँ में राम, बगल में छुरियाँ
ऐसी सोच मिटा कर देखो

रौशन हो मन का हर कोना
सोच के दीप जला कर देखो

एक और एक बनेंगे ग्यारह
मिल-जुल हाथ बढ़ा कर देखो

दर्पण सब सच-सच कह देगा
'दानिश' आँख मिला कर देखो .

Thursday, November 4, 2010

सोच के दीप जला कर देखो-तरही की पहली क़िस्त

सबको दीपावली की शुभकामनाओं के साथ इस तरही मुशायरे का आगाज़ करते हैं। मिसरा-ए तरह " सोच के दीप जला कर देखो" पर ग़ज़लें मिलनी शुरू हो चुकी हैं और जो शायर रह गए हैं उनसे भी अनुरोध है कि जल्दी ग़ज़ल पूरी करें और भेजें।हमारे पहले शायर हैं- चंद्रभान भारद्वाज । इनके इस खूबसूरत शे’र-

स्याह अमावस पूनम होगी
सोच के दीप जला कर देखो


के साथ लीजिए इनकी ये तरही ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-















चंद्रभान भारद्वाज

मन को पंख लगाकर देखो
पार गगन के जाकर देखो

खुद आकाश सिमट जायेगा
बाँहों को फैला कर देखो

इतनी सुंदर बन न सकेगी
दुनिया लाख बना कर देखो

धरती स्वर्ग नज़र आएगी
दीवाली पर आ कर देखो

स्याह अमावस पूनम होगी
सोच के दीप जला कर देखो

आँखों में फुलझड़ियाँ चमकें
प्यार किसी का पा कर देखो

अपना दर्द छिपाकर रखना
औरों का सहला कर देखो

नफ़रत की ऊँची दीवारें
प्यार से आज ढहा कर देखो

'भारद्वाज' रसिक ग़ज़लों का
ग़ज़लें आप सुना कर देखो


दिपावली की ढेर सारी शुभकामनाएँ !

Wednesday, October 27, 2010

इक़बाल अरशद और इक़बाल बानो

पाकिस्तान के मुलतान शहर के शायर इक़बाल अरशद की एक बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल नज़्र कर रहा हूँ। जब किसी संजीदा शायर की सोच ग़म की खौफ़नाक गहराइयों में डूबती है तभी ऐसी ग़ज़ल की आमद होती है। सच्ची ग़ज़ल वही है जिसमें सुनने वाला तिनके तरह शे’रों के साथ बह जाए।

ग़ज़ल

रगों में ज़हर के नश्तर उतर गए चुप-चाप
हम अहले-दर्द जहाँ से गुज़र गए चुप-चाप

किसी पे तर्के-तअल्लुक का भेद खुल न सका
तेरी निगाह से हम यूँ उतर गए चुप-चाप

पलट के देखा तो कुछ भी न था हमारे सिवा
जो मेरे साथ थे जाने किधर गए चुप-चाप

उदास चहरों में रो-रो के दिन गुजारे मियां
ढली जो शाम तो हम अपने घर गए चुप-चाप

हमारी जान पे भारी था गम का अफ़साना
सुनी न बात किसी ने तो मर गए चुप-चाप

बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

अब इस ग़ज़ल को इक़बाल बानो की दिलकश आवाज़ में सुनिए-




और तरही मुशायरे के मिसरे की एक बार फिर आपको याद दिला देता हूँ-

सोच के दीप जला कर देखो

बहर है- चार फ़ेलुन (22x4)
काफ़िया है- आ, पा, जा, खा , जला आदि। ये स्वर साम्य काफ़िया है।
रदीफ़ है- कर देखो ..आपकी ग़ज़लों का इंतज़ार रहेगा...धन्यवाद

Monday, October 25, 2010

इस बार का तरही मुशायरा

इस बार का तरही मिसरा शायर जनाब मुहम्मद मुनीर ख़ाँ नियाज़ी की ग़ज़ल से लिया गया है। ये रहा मिसरा-

सोच के दीप जला कर देखो

बहर है- चार फ़ेलुन (22x4)
काफ़िया है- आ, पा, जा, खा , जला आदि। ये स्वर साम्य काफ़िया है।
रदीफ़ है- कर देखो ।

पूरा शे’र ऐसे है-

आज की रात बहुत काली है
सोच के दीप जला कर देखो

इस ग़ज़ल को आप गुलाम अली साहब की आवाज़ में सुन भी लीजिए-



तीन दिन के बाद आप ग़ज़लें भेज सकते हैं । बाकी फ़ेलुन की बहर है इसे मात्रिक छंद की तरह इस्तेमाल न करें और लघु से मिसरा न शुरू हो तो बेहतर है। उम्मीद करता हूँ कि ये मुशायरा यादगार होगा और सभी शायर , जो पिछले मुशायरों में हिस्सा ले चुके हैं वो शिरकत करेंगे और नये शायर भी तबअ आज़माई करेंगे।

Monday, October 18, 2010

अमीर खु़सरो और कबीर को ख़िराजे-अक़ीदत-आलोक श्रीवास्तव

आलोक श्रीवास्तव जी ने ये दो ग़ज़लें द्विज जी को भेजी थीं। ये ग़ज़लें आप सब के लिए हाज़िर हैं। आलोक श्रीवास्तव शायरी में अपना एक अलग मुकाम रखते हैं, जिससे हम सब वाकिफ़ हैं और ये नाम किसी परिचय का मुहताज़ नहीं है। पहली ग़ज़ल अमीर खु़सरो की ज़मीन में है। ये ग़ज़ल बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक्ल में है( फ़ऊल फ़ालुन x 4, 12122 x4)।
मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-

आलोक श्रीवास्तव

सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां....अमीर ख़ुसरो
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो, कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां

दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सब कुछ, मैं करना चाहूं नज़र से बतियां

ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है
सुलगती सांसे, तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां

उन्हीं की आंखें , उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुशबू
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा, किसी दरस में पिरोलूं अंखियां

मैं कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां

दूसरी ग़ज़ल बहरे-हज़ज में है और कबीर जी की ज़मीन में कही गई है। ये ग़ज़ल पढ़िये-

आलोक श्रीवास्तव

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ...कबीर
गुज़ारी होशियारी से, जवानी फिर गुज़ारी क्या

चचा ग़ालिब की जूती हैं, उन्हीं के क़र्ज़दारी हैं
चुकाए से जो चुक जाए, वो क़र्ज़ा क्या, उधारी क्या

धुएं की उम्र कितनी है, घुमड़ना और खो जाना
यही सच्चाई है प्यारे, हमारी क्या, तुम्हारी क्या

उतर जाए है छाती में, जिगरवा काट डाले हैं
मुई महंगाई ऐसी है, छुरी, बरछी, कटारी क्या

तुम्हारे अज़्म की ख़ुशबू, लहू के साथ बहती है
अना ये ख़ानदानी है, उतर जाए ख़ुमारी क्या


सो ये थी कबीर और अमीर ख़ुसरो को ख़िराजे-अक़ीदत आलोक जी की तरफ़ से । कबीर के लिखे को हम शायरी नहीं कह सकते, बल्कि ये बानी है जिसे मंदिरों मे गाया जाता है। लेकिन शायरी महफिलों में गाई जाती हैं, मंदिरों में नहीं। शायद ग़ज़ल के इस स्वभाव को कबीर भाँप गए होंगे और इसी वज़ह से इस विधा से उन्होंने किनारा कर लिया। यही एक ग़ज़ल शायद उनकी मिलती है जिसे उन्होंने प्रयोगवश कहा होगा

संत कबीर :

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?


निदा साहब ने भी कबीर की ज़मीन में ये ग़ज़ल कही है । निदा जी ने अमीर खुसरो की ज़मीन में भी एक-आध ग़ज़ल कही है, जिसे फिर कभी पेश करूँगा। अभी मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-


निदा फ़ाज़ली:

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.

उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.

हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या

सोच रहा हूँ कि एक तरही मुशायरा भी करवा दिया जाए। मिसरे का ज़िक्र अगली पोस्ट में करूँगा...धन्यवाद ।

Tuesday, September 14, 2010

राहत इंदौरी साहब की एक और ताज़ा ग़ज़ल















राहत साहब को जब भी sms करके पूछें कि सर, ये आपकी ताज़ा ग़ज़ल ब्लाग पर लगा सकता हूँ? तो तुरंत ..हाँ..में जवाब आ जाता है। सो इस नेक दिल शायर की एक और ग़ज़ल हाज़िर है। मुलाहिज़ा कीजिए -

ग़ज़ल

सर पर बोझ अँधियारों का है मौला खैर
और सफ़र कोहसारों का है मौला खैर

दुशमन से तो टक्कर ली है सौ-सौ बार
सामना अबके यारों का है मौला खैर

इस दुनिया में तेरे बाद मेरे सर पर
साया रिश्तेदारों का है मौला खैर

दुनिया से बाहर भी निकलकर देख चुके
सब कुछ दुनियादारों का है मौला खैर

और क़यामत मेरे चराग़ों पर टूटी
झगड़ा चाँद-सितारों का है मौला खैर

(पाँच फ़ेलुन+ एक फ़े )

Monday, September 6, 2010

राहत साहब की ताज़ा ग़ज़ल
















राहत इंदौरी साहब की कलम से ऐसा लगता है कि ज़िंदगी खु़द बोल रही हो। ख़याल सूफ़ीयों के से और लहज़ा दार्शनिकों जैसा । ऐसी शायरी वाहवाही के मुहताज़ नहीं बल्कि इसे सुनकर ज़िंदगी खु़द टकटकी लगा के देखना शुरू कर देती और धुँध के पार के उजालों को देखकर पलकें झपकती है और वापिस लौट आती है। मुलाहिज़ा कीजिए बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल में ये ग़ज़ल-

ग़ज़ल

हौसले ज़िंदगी के देखते हैं
चलिए! कुछ रोज़ जी के देखते हैं

नींद पिछली सदी से ज़ख़्मी है
ख़्वाब अगली सदी के देखते हैं

रोज़ हम एक अंधेरी धुँध के पार
काफ़िले रौशनी के देखते हैं

धूप इतनी कराहती क्यों है
छाँव के ज़ख़्म सी के देखते हैं

टकटकी बाँध ली है आँखों ने
रास्ते वापसी के देखते हैं

बारिशों से तो प्यास बुझती नहीं
आइए ज़हर पी के देखते हैं

Friday, July 30, 2010

शिव कुमार बटालवी की 75वीं बर्षगाँठ पर विशेष

















शिव कुमार बटालवी का जन्म
23, जुलाई 1936 को गांव बड़ा पिंड लोहटियां, जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है, में हुआ था। 28 साल की उम्र में शिव को 1965 में अपने काव्य नाटक "लूणा " के लिये साहित्य के सर्वश्रेष्ठ साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया। उन्हे पंजाबी साहित्य का जान कीट्स भी कहा जाता है। केवल 36 साल की उम्र में वो 1973 की 6-7 मई की मध्य रात्रि को अपनी इन पंक्तियों को सच करता हुआ सदा के लिए विदा हो गया-

''असां ते जोबन रूते मरना, मुड़ जाणां असां भरे - भराये,
हिज़्र तेरे दी कर परक्रमा, असां तां जोबन रूते मरना..


दुनिया का मिज़ाज बहुत अजीव है। ये मुर्तियों को बहुत पूजती हैं लेकिन जो सामने है उसकी उपेक्षा करती है। किसी शायर ने सच कहा है-

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं

आज शिव की बात याद आती है-"life is a slow suicide जो intellectual है वो धीरे-धीरे मरेगा " यही होता आया है और आगे भी शायद ऐसा ही होगा। ख़ैर! शिव की कही ये गज़ल सुनिए जो कुछ ऐसे ही अहसासों से लबरेज़ है-

Friday, July 23, 2010

स्व: श्री तलअत इरफ़ानी की गज़लें

तिलक राज वशिष्ट उर्फ़ तलअत इरफानी का जन्म पकिस्तान के गुजरांवाला तहसील के गाँव खनानी में हुआ । लेकिन बाद में वो कुरुक्षेत्र में आकर बस गए। नज़्म और ग़ज़ल बड़ी संज़ीदगी से कहते थे । 2003 में वो इस दुनिया को सदा के लिए विदा कह गए। आप स्व: मनोहर साग़र पालमपुरी के भी अज़ीज दोस्त थे । उनकी कुछ गज़लें आपके लिए पेश कर रहा हूँ और ये उस शायर के लिए "आज की ग़ज़ल" की तरफ से श्रदांजलि है।

ये शे’र देखिए "जटा और गंगा" जैसे शब्दों का बेमिसाल प्रयोग-

उतरे गले से ज़हर समंदर का तो बताएं
गंगा कहाँ छिपी है हमारी जटाओं में

और ये देखिए -

छुटता नहीं है जिस्म से यह गेरुआ लिबास,
मिलते नहीं हैं राम भरत को खडावोँ में

गज़लीयत के साथ-साथ अनोखी और अनूठी कहन -

छूते ही तुम्हें हम तो अन्दर से हुए खाली
बर्तन ने कहीं यूँ भी पानी को सदा दी है

रंगे-तसव्वुफ़-

दरीचे खिड़कियाँ सब बंद कर लो,
बस इक अन्दर का दरवाज़ा बहुत है

इनका अपना अलग ही अंदाज़ है और ये बेमिसाल है -

उछल के गेंद जब अंधे कुएं में जा पहुँची
घरों का रास्ता बच्चों पे मुस्कुरा उठता

खुशबू हवा में नीम के फूलों से यूँ उड़ी
तलअत तमाम गाँव का नक़्शा संवर गया


खिड़की पे कुछ धुँए की लकीरें सफर में थीं
कमरा उदास धूप की दस्तक से डर गया

ऐसा शायर शायरी के बारे में क्या कहता है पढ़िए एक छोटी सी खूबसूरत नज़्म-

मैं जब- जब,
अपने अन्दर की आंखें खोल रहा होता हूँ
चारों ओर
मुझे बस एक उसी का रूप नज़र आता है
नहीं चाहता कुछ भी कहना
लेकिन एक अजीब कैफ़ीयत
साँस-साँस इज़हारे तअल्लुक
यादें, आंसू, लोग, ज़मीं, आकाश, सितारे
जैसे कोई बहरे फ़ना में
आलम आलम हाथ पसारे
और मदद के लिए पुकारे
और वह सब जो
पीछे छूट चुका होता है
या आगे आने वाला होता है
जाने कैसे?
सन्नाटे की दीवारों को तोड़ के
अपने आप ज़बां में ढल जाता है
दूर अन्धेरे की घाटी में
एक दिया सा जल जाता है।

शिमला की याद में ये शे’र -

यह ठिठुरती शाम यह शिमला की बर्फ
दोस्तो! जेबों से बाहर आओ भी

ग़ज़ल कैसी हो? और शे’र कैसे कहा जाया? कहन क्या है और कैसी होनी चाहिए? गज़लीयत क्या है , परवाज़ क्या है ? कल्पना क्या है ? और नये शब्द कैसे प्रयोग किए जाएँ? इन सब सवालों का जवाब हैं तलअत साहब की शायरी।

लीजिए अब ये गज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

एक

टपकता है मेरे अन्दर लहू जिन आसमानों से
कोई तो रब्त है उनका ज़मीं की दास्तानों से

धुंआ उठने लगा जब संगे मरमर की चटानो से
सितारों ने हमें आवाज़ दी कच्चे मकानों से

समंदर के परिंदों साहिलों को लौट भी जाओ
बहुत टकरा लिए हो तुम हमारे बादबानोँ से

यह माना अब भी आंतों में कही तेजाब है बाकी
निकल कर जाओगे लेकिन कहाँ बीमारखानों से

वो अन्दर का सफर था या सराबे-आरज़ू यारो
हमारा फासला बढता गया दोनों जहानों से

लचकते बाजुओं का लम्ज़* तो पुरकैफ़ था "तलअत"
मगर वाकिफ न थे हम पत्थरों की दास्तानों से

लम्ज़-दोष लगाना

बहरे-हज़ज
मुफ़ाईलुऩ x 4

दो

बुझा है इक चिराग़े-दिल तो क्या है
तुम्हारा नाम रौशन हो गया है

तुम्हीं से जब नही कोई तअल्लुक
मेरा जीना न जीना एक सा है

तेरे जाने के बाद ए दोस्त हम पर
जो गुजरी है वो दिल ही जानता है

सरासर कुफ्र है उस बुत को छूना
वो इस दर्जा मुक़द्दस हो गया है

कहीं मुँह चूम ले उसका न कोई
वो शायद इस लिए कम बोलता है

हमी ने दर्द को बख्शी है अज़मत
हमी को दर्द ने रुसवा किया है

हयात इक दार है "तलअत" की जिस पर
अज़ल से आदमी लटका हुआ है

बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन

तीन

बदन उसका अगर चेहरा नहीं है
तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है

दरख़्तों पर वही पत्ते हैं बाकी
कि जिनका धूप से रिश्ता नहीं है

वहां पहुँचा हूँ तुमसे बात करने
जहाँ आवाज़ को रस्ता नहीं है

सभी चेहरे मुक़म्मल हो चुके हैं
कोई अहसास अब तन्हा नहीं है

वही रफ़्तार है "तलअत" हवा की
मगर बादल का वह टुकड़ा नहीं है

बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन

चार

बस्ती जब आस्तीन के साँपों से भर गयी
हर शख्स की कमीज़ बदन से उतर गयी

शाख़ों से बरगदों की टपकता रहा लहू
इक चीख असमान में जाकर बिखर गयी

सहरा में उड़ के दूर से आयी थी एक चील
पत्थर पे चोंच मार के जाने किधर गयी

कुछ लोग रस्सियों के सहारे खड़े रहे
जब शहर की फ़सील कुएं में उतर गयी

कुर्सी का हाथ सुर्ख़ स्याही से जा लगा
दम भर को मेज़पोश की सूरत निखर गयी

तितली के हाथ फूल की जुम्बिश न सह सके
खुशबू इधर से आई उधर से गुज़र गयी

बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ सूरत)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

Friday, July 16, 2010

निश्तर ख़ानक़ाही की दो गज़लें














1930 में बिजनौर(उ.प्र) में जन्में निश्तर ख़ानक़ाही साहब के अब तक पाँच गज़ल संग्रह छ्प चुके हैं और कई साहित्यक सम्मान भी ये हासिल कर चुके हैं।संजीदगी और दुख-दर्द का अनूठा बयाँ हैं उनकी गज़लें। कुछ शे’र मुलाहिज़ा कीजिए और शायर के क़द का अंदाज़ अपने आप हो जाएगा-

मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में ऊड़ाया गया मुझे

अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए


हवाएँ गर्द की सूरत उड़ा रहीं हैं मुझे
न अब ज़मीं ही मेरी है ,न आसमान मेरा

धड़का था दिल कि प्यार का मौसम गुज़र गया
हम डूबने चले थे कि दरिया उतर गया

लीजिए इनकी दो गज़लें हाज़िर हैं-

एक

सौ बार लौहे-दिल* से मिटाया गया मुझे
मैं था वो हर्फ़े-हक़ कि भुलाया गया मुझे

लिक्खे हुए कफ़न से मेरा तन ढका गया
बे-कतबा* मक़बरों में दबाया गया मुझे

महरूम करके साँवली मिट्टी के लम्स से
खुश रंग पत्थरों मे उगाया गया मुझे

पिन्हाँ थी मेरे जिस्म में कई सूरजों की आँच
लाखों समुंदरों में बुझाया गया मुझे

किस-किसके घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे

मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में ऊड़ाया गया मुझे

लौहे-दिल-ह्रदय-पट्ल, बे-कतबा-बिना शिलालेख वाले

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ सूरत
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

दो

तेज़ रौ पानी की तीखी धार पर चलते हुए
कौन जाने कब मिलें इस बार के बिछुड़े हुए

अपने जिस्मों को भी शायद खो चुका है आदमी
रास्तों मे फिर रहे हैं पैरहन बिखरे हुए

अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए

अनगिनत जिस्मों का बहरे-बेकरां* है और मैं
मुदद्तें गुज़री हैं अपने आप को देखे हुए

किन रुतों की आरज़ू शादाब रखती है उन्हें
ये खिज़ाँ की शाम और ज़ख़्मों के वन महके हुए

काट में बिजली से तीखी, बाल से बारीक़तर
ज़िंदगी गुज़री है उस तलवार पर चलते हुए

*बहरे-बेकरां -अथाह सागर

बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212

Tuesday, July 6, 2010

राजेश रेड्डी की दो ग़ज़लें
















22 जुलाई 1952 को जयपुर मे जन्मे श्री राजेश रेड्डी उन गिने-चुने शायरों में से हैं जिन्होंने ग़ज़ल की नई पहचान को और मजबूत किया और इसे लोगों ने सराहा भी आप ने हिंदी साहित्य मे एम.ए. किया, फिर उसके बाद "राजस्थान पत्रिका" मे संपादन भी किया। आप नाटककार, संगीतकार, गीतकार और बहुत अच्छे गायक भी हैं.आप डॉ. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान हासिल कर चुके हैं । जाने-माने ग़ज़ल गायक इनकी ग़ज़लों को गा चुके हैं । इनकी दो गज़लें हाज़िर हैं-

एक

गिरते-गिरते एक दिन आखिर सँभलना आ गया
ज़िंदगी को वक़्त की रस्सी पे चलना आ गया

हो गये हैं हम भी दुनियादार यानी हमको भी
बात को बातों ही बातों में बदलना आ गया

बुझके रह जाते हैं तूफ़ाँ उस दिये के सामने
जिस दिये को तेज़ तूफ़ानों में जलना आ गया

जमअ अब होती नहीं हैं दिल में ग़म की बदलियाँ
क़तरा-क़तरा अब उन्हें अश्कों में ढलना आ गया

दिल खिलौनों से बहलता ही नहीं जब से उसे
चाँद-तारों के लिए रोना मचलना आ गया

(रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत)

दो

सोचा न कभी खाने कमाने से निकलकर
हम जी न सके अपने ज़माने से निकलकर

जाना है किसी और फ़साने में किसी दिन
आये थे किसी और फ़साने से निकलकर

ढलता है लगातार पुराने में नया दिन
आता है नया दिन भी पुराने से निकलकर

दुनिया से बहुत ऊब कर बैठे थे अकेले
अब जाएँ कहाँ दिल के ठिकाने से निकलकर

किस काम की यारब तेरी अफ़सानानिग़ारी
किरदार भटकते हैं फ़साने से निकलकर

चहरों की बड़ी भीड़ में दम घुट सा गया था
साँस आई मेरी आइनाख़ाने से निकलकर

कोशिश से कहाँ हमने कोई शे’र कहा है
आये हैं गुहर ख़ुद ही ख़ज़ाने से निकलकर

हज़ज की मुज़ाहिफ़ सूरत
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ालुन
22 11 22 11 22 11 22

Wednesday, June 30, 2010

देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र' की ग़ज़लें

1 अप्रैल 1934 में आगरा जनपद में जन्मे देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र' मूलत: गीतकार हैं जिनके गीतों पर सैंकड़ों छात्रों ने शोध किया है। आपने प्रशासनिक सेवा की जगह अध्यापन को तरजीह देते हुए दिल्ली विश्व्व-विद्यालय में अध्यापन किया। इनके गीत-संग्रहों की एक लम्बी सूची है। हाल ही में इनके दो ग़ज़ल संग्रह`धुएँ के पुल` तथा "भूला नहीं हूँ मैं" प्रकाशित हुए हैं।
प्रयोग और रिवायत का अनूठा संगम हैं इनकी शायरी। देखिए ये मतला जिसमें काफ़िए और रदीफ़ को अनूठे ढंग से पेश किया । "में तुम " और "में हम" दोहरी रदीफ़ और "सफ़र" , "घर" आदि काफ़िए का भी दोहराव एक ही मिसरे में।

डगर में साथ-साथ हैं , न घर में तुम, न घर में हम
न फिर भी कोई गुफ़्तगू , सफ़र में तुम, सफ़र में हम

और एक बेमिसाल शे’र देखिए-

दिखतीं लहू-लुहान क्यों तितली की उँगलियां
काँटों में एक गुलाब है कहते जिसे ग़ज़ल


और लीजिए प्रस्तुत हैं उनकी ये तीन ग़ज़लें -

ग़ज़ल

मुसलसल रंजो-ग़म सहने का ख़ूगर जो हुआ यारो
ख़ुशी दो लम्हों की देकर उसे बेमौत मत मारो

मेरी राहों मे आकर क्यों मेरे पाँवो में चुभते हो
मुहाफ़िज़ बनके फूलों के चमन में तुम खिलो यारो

नहीं इस जुर्म की कोई ज़मानत होते देखी है
असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ और मुहब्बत के गिरफ़तारो

न अब वो मैक़दे साक़ी-ओ-पैमाना उधर होंगे
जहाँ तुम शाम होते ही चले जाते थे मैख़्वारो

रखा क्या है अज़ीयत के सिवा इस गोशा-ए-दिल में
कहाँ तुम आ गए हो ऐशो-इश्रत के तलबगारो

*ख़ूगर -आदी

हज़ज की सालिम शक्ल
मुफ़ाईलुन x 4

ग़ज़ल

अपने में लाजवाब है कहते जिसे ग़ज़ल
सहरा में इक सराब है कहते जिसे ग़ज़ल

अब मकतबों या मयक़दों में फ़र्क़ क्या करें
लफ़्ज़ों में इक शराब है कहते जिसे ग़ज़ल

जो भी इसे है देखता शैदाई वो हुआ
कमसिन का इक शबाब है कहते जिसे ग़ज़ल

वो पूछते हैं हमसे करें हम भी क्या बयाँ
गूंगे का एक ख्वाब है कहते जिसे ग़ज़ल

दिखतीं लहू-लुहान क्यूँ तितली की उँगलियां
काँटों में इक गुलाब है कहते जिसे ग़ज़ल

पढना इसे तो थाम के दिल को पढ़ो जनाब
अश्कों की इक किताब है कहते जिसे ग़ज़ल

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

ग़ज़ल

डगर में साथ-साथ हैं , न घर में तुम, न घर में हम
न फिर भी कोई गुफ़्तगू सफ़र में तुम, सफ़र में हम

अलग-अलग हैं बस्तियाँ , जुदा-जुदा भी हैं पते
हमारे ख़त मिले तुम्हें, शहर में तुम, शहर में हम

मुक़ाम है वो कौन सा जहाँ पे वो नहीं रहा
वो देखता सभी को है , नज़र में तुम, नज़र में हम

तुम्हारे पास रूप है हमारे पास रंग है
जो फूल तुम तो बर्ग मैं , शजर में तुम, शजर में हम

ख़ुदा-ओ-नाख़ुदा सभी बचाने तुमको आ गए
हमारी कश्ती डूबती , भँवर में तुम , भँवर में हम

तुम एक इश्तिहार हो, मैं ज़िक़्रे-नागवार हूँ
ज़ुबां पे तुम ज़हन में हम, खबर में तुम, खबर में हम

हज़ज मसम्मन मक़बूज़-
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 X4

Tuesday, June 22, 2010

अनमोल शुक्ल और वीरेन्द्र जैन की ग़ज़लें

1957 में हरदोई(उ.प्र) में जन्में अनमोल शुक्ल पेशे से सिविल इंजीनियर हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। इनकी इस ग़ज़ल ने मुझे बहुत प्रभावित किया जिसे आज हम पेश करेंगे। अच्छे शे’र की बड़ी सीधी सी पहचान है कि इन्हें सुनकर बरबस मुँह से वाह निकल जाती है। एक ग़ज़ल संग्रह भी आपका शाया हो चुका है जिसे ये जल्द मुझ तक पहुँचा रहे हैं तो फिर कुछ और ग़ज़लों इसी मंच पर सांझा करेंगे। इनकी कई ग़ज़लें ग़ज़ल संकलनों में शामिल की गईं हैं। "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" में भी कुछ ग़ज़लें शाया हो चुकी हैं। सो मुलाहिज़ा कीजिए ये खूबसूरत ग़ज़ल-

अनमोल शुक्ल

आपने किस्मत में मेरी क्यों लिखा ऐसा सफ़र
मोम की बैसाखियां और धूप में तपता सफ़र

हमसफ़र,हमराज़ हो,हमदर्द हो या हमख़याल
फिर तो कट जाता है मीलों दूर तक लंबा सफ़र

भीड़ चारों ओर जितनी है यहाँ रह जाएगी
मुझको भी करना पड़ेगा एक दिन तनहा सफ़र

मंज़िलों की, काफ़िलों की, हौसलों की बात कर
क्या हुआ जो बीच रस्ते में तेरा टूटा सफ़र

जिन परिंदों के परों के हौसले ज़ख्मी रहे
उनसे हो पाया न कोई भी, कभी ऊँचा सफ़र

मुश्किलों, दुश्वारियों से जूझते "अनमोल" ने
जितना भी काटा है हँसकर, बोलकर काटा सफ़र

रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


अनमोल जी से आप इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं-09412146255

अब आज के दूसरे शायर हैं श्री वीरेन्द्र जैन इन्होंने बैंक निराक्षक के रूप में उत्तर प्रदेश में काम किया है। आप जनवादी लेखक संघ भोपाल की इकाई के अध्यक्ष भी रहे हैं और व्यंग्य की चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं और ग़ज़ल भी बाखूबी कहते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद पूरे समय लेखन व पत्रकारिता में जुटे हुए हैं।
पिछले पोस्ट में सदा अम्बालवी की ग़ज़लें प्रकाशित की तो सोचा इस बार सबको मेल नहीं करूँगा , लोग चिड़ जाते हैं ऐसे स्पैम मेल से। जब कामेंट देखे तो तीन। द्विज जी कहने लगे ब्लाग तो अच्छा है लेकिन कामेंट ३ ही हैं। फिर अचानक ओशो की किताब पढ़ रहा था जिसमें एक रोचक कहानी थी कि एक बार एक इश्तिहार वाला किसी बड़ी कंपनी के मालिक के पास शाम के वक़्त विज्ञापन लेने गया तो मालिक ने कहा - भई हमारी कंपनी तो स्थापित हो चुकी है। हम क्यों विज्ञापन दें, तो थोड़ी देर बाद चर्च के घंटे की आवाज़ सुनाई दी तो वो आदमी तपाक से बोला हज़ूर ये चर्च कोई २०० साल पुरानी है लेकिन फिर भी घंटा बजा के चेताती है कि आ जाइए। सो यहाँ भी कुछ ऐसा ही है मेल करना भी घंटा बजाने जैसा ही है। प्रसार के साथ-साथ प्रचार भी ज़रूरी है। खैर मुलाहिज़ा कीजिए वीरेन्द्र जी की ये ग़ज़ल

वीरेन्द्र जैन

हमीं ने काम कुछ ऐसा चुना है
उधेड़ा रात भर दिन भर बुना है

न हो संगीत सन्नाटा तो टूटे
गज़ल के नाम पर इक झुनझुना है

समझते खूब हो नज़रों की भाषा
मिरा अनुरोध फिर क्यों अनसुना है

तुम्हारे साथ बीता एक लम्हा
बकाया उम्र से लाखों गुना है

जहाँ पर झील में धोया था चेहरा
वहाँ पानी अभी तक गुनगुना है

हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122

शायर का पता:
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (म.प्र) 462023
फोन 0755-2602432 मोबाइल 9425674629
Email- j_virendra@yahoo.com

Tuesday, June 15, 2010

सदा अम्बालवी की ग़ज़लें

राजेन्द्र पाल सिंह उर्फ़ सदा अम्बालवी की तीन ग़ज़लें आज शाया कर रहे हैं। आप पंजाब एंड सिंध बैंक में कायर्रत हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह शाया हो चुके हैं और कुछ ग़ज़लें अच्छे ग़ज़ल गायकों ने भी गाईं हैं और पत्र-पत्रिकाओं में आप अकसर छपते रहते हैं। अपने ग़ज़ल संग्रह के पेश-लफ़्ज़ में आप ने कहा है-"ग़ज़ल की पाबंदियाँ अकसर शायरों को खलती रही हैं। इसमें कोई शक़ नहीं ग़ज़ल के शे’र घड़ने में मेहनत और कविश दरकार है। बहुत से शायरों ने इस मेहनत से बचने के लिए ग़ज़ल के उसूलों को दरकिनार कर दिया और इसे जदीदियत का नाम दे दिया जबकि सच्चाई ये है कि ग़ज़ल के उसूलों को निभाते हुए और उसके मिज़ाज को कायम रखते हुए भी उसमें नये रंग भरने की गुंज़ाइश है"ये बात बिल्कुल सही भी है। ग़ज़ल का हुस्न इसके उसूलों से ही है। जब तक कोई मिसरा बहर में ढल नहीं जाता उसमें कशिश पैदा नहीं होती। अगर बिना बहर के कहना है तो नज़्म कह लें ग़ज़ल ही क्यों । जदीदियत ख़यालों मे होनी चाहिए। आप ग़ज़ल की बुनियाद (अरूज़)के साथ छेड़-छाड़ नहीं कर सकते , इसके उपर महल अपनी मर्ज़ी का बना सकते हो। उर्दू ज़बान में अलग-अलग भाषाओं की मिठास है और इसका अपना एक ख़ास मिज़ाज है। इसी मिज़ाज को अपने दामन में समेटे हुए हाज़िर हैं अम्बालवी साहब की ये ग़ज़लें-

शे’र मेरे तो हैं बस हर्फ़े-तसल्ली की तरह
मैं मसीहा नहीं सूली पे चढ़ाओ न मुझे

एक

यूँ तो एक उम्र साथ-साथ हुई
जिस्म की रूह से न बात हुई

क्यों ख़यालों मे रोज़ आते हैं
इक मुलाक़ात जिनके साथ हुई

कितना सोचा था दिल लगाएँगे
सोचते-सोचते हयात हुई

लाख ताकीद हुस्न करता रहा
इश्क़ से ख़ाक अहतियात हुई

इक फ़क़त वस्ल का न वक़्त हुआ
दिन हुआ रोज, रोज़ रात हुई

क्या बताएँ बिसात ज़र्रे की
ज़र्रे-ज़र्रे से कायनात हुई

शायद आई है रुत चुनावों की
कल जो कूचे में वारदात हुई

क्या थी मुशकिल *विसाले-हक़ में "सदा"
तुझ से बस रद्द न तेरी ज़ात हुई

*विसाले-हक़--प्रभु मिलन

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112

दो

दिल न माना मना के देख लिया
लाख समझा-बुझा के देख लिया

वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठाके देख लिया

लोग कहते हैं दिल लगाना जिसे
रोग वो भी लगा के देख लिया

बेवफ़ाई है तेरी रग-रग में
आज़मा, आज़मा के देख लिया

ज़ख्म दिल का है लादवा यारो
चारागर को दिखाके देख लिया

उनसे निभता नहीं कोई रिश्ता
दोस्त, दुशमन बना के देख लिया

उनका नज़रें चुरा के देखना भी
उनसे नज़रें चुरा के देख लिया

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112

तीन

दाग़े-दिल दुनिया की नज़रों से छुपाने के लिए
दिल जो रोए भी तो हँस देंगे दिखाने के लिए

लीजिए *रस्में-मुदारात निभाने के लिए
हम भी पी लेते हैं यारों को पिलाने के लिए

ज़िंदगी रस्म है इक मौत से पहले शायद
साँस लेते रहो तुम रस्म निभाने के लिए

ख़ान-ए-दिल पे तेरी याद है क़ाबिज़ वर्ना
दर्द क्या-क्या नहीं इस घर को सजाने के लिए

रंग लाई है "सदा" खूब तेरी *हक़गोई
चार कांधे न मिले लाश उठाने के लिए

रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22

हक़गोई-सच बयानी , रस्में-मुदारात -मेहमाँ नवाज़ी

Wednesday, June 9, 2010

पाकिस्तान के शायर- तौसीफ़ तबस्सुम















आज हम पाकिस्तान के प्रमुख शायरों में से एक जनाब तौसीफ़ तबस्सुम की कुछ ग़ज़लें पेश कर रहे हैं।आम आदमी की मुसीबतें पूरी दुनिया में एक जैसी ही हैं । पाकिस्तान तो हिंदोस्तान का टूटा हुआ बाज़ू है तो वहाँ के दुख-दर्द तो और भी हमारे क़रीब हैं। इधर भी शायर ज़िंदगी से खफ़ा है तो उधर भी। इस इधर-उधर की बात पर नूर मुहम्मद नूर के ये शे’र देखिए-

ज़रा-सी मुहब्बत, ज़रा-सी शराफ़त
वही कम इधर भी, वही कम उधर भी

उखड़ता हुआ 'नूर' इंसानियत का
वही दम इधर भी वही दम उधर भी

और ज्ञान प्रकाश विवेक का शे’र इसी मंज़र को कुछ यूँ बयां करता है-

हमारे और उनके बीच यूँ तो सब अलग-सा है
मगर इक रात की रानी इधर भी है उधर भी है

खै़र!बात तो तौसीफ़ तबस्सुम साहब की हो रही थी। इनको पाकिस्तान का अल्लामा डा. मुहम्मद इक़बाल एवार्ड हासिल हो चुका है। इनके इस खूबसूरत शे’र -

पहली बार सफ़र पर निकले, घर की खुशबू साथ चली
झुकी मुँडेरें, कच्चा रास्ता, रोग बने रस्ते भर का


-के साथ हाज़िर हैं ये ग़ज़लें-

एक

यही हुआ कि हवा ले गई उड़ा के मुझे
तुझे तो कुछ न मिला ख़ाक में मिला के मुझे

बस एक गूँज है जो साथ-साथ चलती है
कहाँ ये छोड़ गए फ़ासले सदा के मुझे

चिराग़ था तो किसी ताक़ ही में बुझ रहता
ये क्या किया के हवाले किया हवा के मुझे

हो एक अदा तो उसे नाम दूँ तमन्ना का
हज़ार रंग हैं इस शो’ला-ए- हिना के मुझे

बुलन्द शाख़ से उलझा था चाँद पिछले पहर
गुज़र गया है कोई ख़्वाब सा दिखा के मुझे

हज़ार बार खुला ज़ह्‌न बादबां की तरह
नुकूशे-पा न मिले उम्रे-बाद पा के मुझे

मैं अपनी मौज़ में डूबा हुआ जज़ीरा हूँ
उतर गया है समंदर बुलन्द पा के मुझे

बहरे- मुजास
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

दो

ग़म का क्या इज़हार करें हम,दर्द से ज़ब्त ज़ियादा है
अब उस मौज़ का हाल लिखेंगे जिसमें दरिया डूबा है

जो भी गुजरनी है आँखों पर काश इस बार गुज़र जाये
सर्द हवा में जुल्म तो ये है पत्ता-पत्ता गिरता है

ख़्वाबों की सरहद पे हुआ है ख़त्म सफ़र बेदारी का
इक दिन शायद आन मिले वो शख़्स जो मुझमें रहता है

दिलज़दगाँ* की भीड़ में जैसे हर पहचान अधूरी हो
तेरी आँखें मेरी हैं, पर मेरा चेहरा किसका है

दिलज़दगाँ-*दुखियों

सात फ़ेलुन+एक फ़े

तीन

कभी ख़ुद मौज साहिल बन गयी है
कभी साहिल कफ़-ए-दरिया* हुआ है

पलट कर आयेगा बादल की सूरत
इसी ख़ातिर तो दरिया बह रहा है

महकते हैं जहाँ खुशबू के साये
तसव्वुर भी वहाँ तस्वीर-सा है

हवा से ख़ाक पर गिरता है ताइर*
"तबस्सुम" ये तलाश-ए-रिज़्क क्या है

कफ़-ए-दरिया-नदी की हथेली,ताइर-पक्षी

हज़ज की मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.

चार

और आगे कहाँ तलक जाएँ
बैठ जाएँ जो पाँव थक जाएँ

आस्मां पर खिले गुले-महताब
रास्ते पत्तियों से ढँक जाएँ

कोई मद्दम करे न साज़ की लय
दिल-ब-दिल लोग सुबह तक जाएँ

ये ज़मीं क्यों क़दम पकड़ती है
उठ के किस तरह यक-ब-यक जाँए

कुछ तो कम हो फ़िराक़ का सहरा
आसुओं से कहो छलक जाएँ

दस्ते-जल्लाद क्यों है नींद के पास
गर्दनें यक-ब-यक ढुलक जाएँ

और कुछ तेज़ हो ये आतिशे-ग़म
जिस्म तप जाएँ रुख़ चमक जाएँ

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल-
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

Wednesday, June 2, 2010

श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी को श्रदाँजलि















सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद
आपके तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल की ये हद भी होगी
आप मेरे लिए माँगेंगे दुआ मेरे बाद

30 अप्रैल को, श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी जी की पुण्य तिथी थी. उनकी ग़ज़लों का प्रकाशन हमारी तरफ़ से उस अज़ीम शायर को श्रदाँजलि है.शायर अपने शब्दों मे हमेशा ज़िंदा रहता है और सागर साहब की शायरी से हमें भी यही आभास होता है कि वो आज भी हमारे बीच में है.सागर साहेब 25 जनवरी 1929 को गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान)मे पैदा हुए थे और 30 अप्रैल, 1996 को इस फ़ानी दुनिया से विदा हो गए. लेकिन उनकी शायरी आज भी हमारे साथ है और साग़र साहेब द्वारा जलाई हुई शम्मा आज भी जल रही है, उस लौ को उनके सपुत्र श्री द्विजेंद्र द्विज जी और नवनीत जी ने आज भी रौशन कर रखा है.साग़र साहेब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लों को हम प्रकाशित कर रहे हैं:

एक

बेसहारों के मददगार हैं हम
ज़िंदगी ! तेरे तलबगार हैं हम

रेत के महल गिराने वालो
जान लो आहनी दीवार हैं हम

तोड़ कर कुहना रिवायात का जाल
आदमीयत के तरफ़दार हैं हम

फूल हैं अम्न की राहों के लिए
ज़ुल्म के वास्ते तलवार हैं हम

बे—वफ़ा ही सही हमदम अपने
लोग कहते हैं वफ़ादार हैं हम

जिस्म को तोड़ के जो मिल जाए
ख़ुश्क रोटी के रवादार हैं हम

अम्न—ओ—इन्साफ़ हो जिसमें ‘साग़र’!
उस फ़साने के परस्तार हैं हम

रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 22/112

दो

रात कट जाये तो फिर बर्फ़ की चादर देखें
घर की खिड़की से नई सुबह का मंज़र देखें

सोच के बन में भटक जायें अगर जागें तो
क्यों न देखे हुए ख़्वाबों में ही खो कर देखें

हमनवा कोई नहीं दूर है मंज़िल फिर भी
बस अकेले तो कोई मील का पत्थर देखें

झूट का ले के सहारा कई जी लेते हैं
हम जो सच बोलें तो हर हाथ में ख़ंजर देखें

ज़िन्दगी कठिन मगर फिर भी सुहानी है यहाँ
शहर के लोग कभी गाँओं में आकर देखें

चाँद तारों के तसव्वुर में जो नित रहते हैं
काश ! वो लोग कभी आ के ज़मीं पर देखें

उम्र भर तट पे ही बैठे रहें क्यों हम ‘साग़र!’
आओ, इक बार समंदर में उतर कर देखें

रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112

तीन

जिसको पाना है उसको खोना है
हादिसा एक दिन ये होना है

फ़र्श पर हो या अर्श पर कोई
सब को इक दिन ज़मीं पे सोना है

चाहे कितना अज़ीम हो इन्साँ
वक़्त के हाथ का खिलोना है

दिल पे जो दाग़ है मलामत का
वो हमें आँसुओं से धोना है

चार दिन हँस के काट लो यारो!
ज़िन्दगी उम्र भर का रोना है

छेड़ो फिर से कोई ग़ज़ल ‘साग़र’!
आज मौसम बड़ा सलोना है

खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112

चार

शाम ढलते वो याद आये हैं
अश्क पलकों पे झिलमिलाये हैं

दिल की बस्ती उजाड़ने वाले
मेरी हालत पे मुस्कुराये हैं

कोई हमदम न हमनवा कोई
हर तरफ़ रंज-ओ-ग़म के साये हैं

बाग़-ए-दिल में बहार आई है
ज़ख़्म गुल बन के खिलखिलाये हैं

वक़्त-ए-मुश्किल न कोई काम आया
हमने सब दोस्त आज़माये हैं

क़िस्सा-ए-ग़म सुनायें तो किसको
आज तो अपने भी पराये हैं

इन बहारों पे ऐतबार कहाँ
हमने इतने फ़रेब खाये हैं

प्यार की रहगुज़र पे ए ‘साग़र’!
हम कई मील चल के आये हैं

खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112

Thursday, May 27, 2010

अंतिम क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी














इस तरही मुशायरे में तक़रीबन ३० शायर-शाइराओं ने हिस्सा लिया। मिला-जुला सा अनुभव रहा । देश-विदेश से ३० शायर एक जगह आकर इकट्ठा हों वो भी लगभग मुफ़्त में ,बताओ और क्या चाहिए। कुछ कच्चे-पक्के शे’र, नये-पुराने शायरों ने सबके सामने रखे हैं। अनुभव और प्रयास का अनूठा संगम था ये मुशायरा और अब अंतिम क़िस्त में लीजिए पहले आदरणीय श्री द्विजेन्द्र द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो और सुंदर शे’रों के साथ इस बेहद खूबसूरत शे’र को भी अपने दामन में समेटे हुए है-

रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी

द्विजेन्द्र द्विज

जोग कठिन अभ्यास रे जोगी
तू स्वादों का दास रे जोगी

यह तेरा रनिवास रे जोगी
जप-तप का उपहास रे जोगी

हर सुविधा तुझ पास रे जोगी
धत्त तेरा सन्यास रे जोगी

काहे का उल्लास रे जोगी
जीवन कारावास रे जोगी

रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी

नामों पर भी उग आती है
गुमनामी की घास रे जोगी

बीच भँवर में जैसे किश्ती
जीवन का हर श्वास रे जोगी

जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी

मन-मंदिर में हों जब साजन
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी

साथ मिलन के क्यों रहता है
बिरहा का आभास रे जोगी

बुझ पाई है बूँदों से कब
यह मरुथल की प्यास रे जोगी

क्या जीवन क्या जीवन-दर्शन
मर जाए जब आस रे जोगी

मैं अपना प्रयास भी आप सब के सामने रख रहा हूँ और डर भी रहा हूँ कि लोग कहेंगे दूसरों के शे’र तो काट देता है लेकिन अपने नहीं देखता । ये मेरा सौभाग्य है कि द्विज जी के साथ मेरी ग़ज़ल शाया हुई है। खै़र ! मुलाहिज़ा कीजिए-

सतपाल ख़याल

आए लबों पर श्वास रे जोगी
छूटा कारावास रे जोगी

दशरथ सी लाचार है नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी

शाखों से रूठे हैं पत्ते
किसको किसका पास रे जोगी

रिशतों के पुल टूट चुके हैं
दूर वसो या पास रे जोगी

बस जी का जंजाल है दुनिया
अच्छा है सन्यास रे जोगी

नील , सफ़ैद और भगवा काले
सब रंग उसके दास रे जोगी

दुख-संताप, पाप के जंगल
जीवन भर बनवास रे जोगी

मुँह में राम बगल में बरछी
किसका अब विश्वास रे जोगी

राम भरोसे पलते दोनों
इक निर्धन,इक घास रे जोगी

दुनिया में हर चीज़ की जड़ मन में ही रहती है चाहे वो सन्यास हो या फिर दुनियादारी। मन से ही आदमी जोगी या भोगी होता और इस मन को तो संत और महापुरुष भी खोजते रहे लेकिन इसका कोई सिरा शायद ही किसी के हाथ लगा हो। योग भगवा , सफ़ेद या नीले कपड़े पहनने से नहीं मिलता योग तो मन को जीत कर ही मिलता है। इस मुशायरे का अंत मैं इस शब्द के साथ करना चाहता हूँ जो सुनने लायक है। शायरी और वाणी में यही फ़र्क़ है । वाणी गुरओं और संतो के मुख से निकलती है और संत अपनी कथनी-करनी के पक्के होते हैं लेकिन शायर तो हम जैसे ही होते हैं। सरवण करो ये शब्द-

इस मन को कोई खोजो भाई
तन छूटे मन कहाँ समाई



हिस्सा लेने वाले तमाम शायरों का और पाठकों का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। कोई ग़लती हो तो मुआफ़ी चाहता हूँ। मैं सब शायरों से ये अनुरोध करता हूँ कि वो अपने अनुभव हमसे बाँटें और इस समापन पर अपनी हाज़री ज़रूर दें ।

Wednesday, May 26, 2010

अंतिम क़िस्त से पहले दो तरही ग़ज़लें और












कल शाम तक अंतिम क़िस्त शाया हो जायेगी लेकिन अंतिम क़िस्त से पहले ये दो ग़ज़लें और मुलाहिज़ा कीजिए-

पूर्णिमा वर्मन

सब कुछ तेरे पास रे जोगी
काहे आज उदास रे जोगी

मुशकिल रहना देस बेगाने
अपना पर अभ्यास रे जोगी

खाना, पानी, गीत बेगाने
अपनी मगर मिठास रे जोगी

दूर नगर में बसना है तो
रख उसका विश्वास रे जोगी

कान में कुंडल, हाथ में माला
कौन चला बनवास रे जोगी

संजीव सलिल

कौन चला बनवास रे जोगी
खु़द पर कर विश्वास रे जोगी

भू-मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी

फ़िक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?

अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.

माली बाग़ और तितली भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.

जो आया है वह जायेगा
तू क्यों आज उदास रे जोगी.

जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.